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- पञ्चम अध्ययन तृतीयोद्देशक ]
वही साधक चारित्र की आराधन कर सकता है। तीर्थंकर की आज्ञा में रहना अर्थात् चारित्रमय जीवन बिताना । अपने जीवन में सच्चारित्र्य सहज हो जाना चाहिए। ऐसा चारित्रमय जीवन जीना यही तीर्थकर देव का उपदेश है । दूसरा विशेषण "पंडिए" है इसका अर्थ सत् असत् का विचार कर सकने वाला विवेकी होता है। तीसरे विशेषण का अर्थ रागरहित-अनासक्त है । तात्पर्य यह हुआ कि जो साधक विवेकी और अनासक्त है वही संयम की आराधना अखंड रूप से कर सकता है। विवेकी का अर्थ प्रत्येक क्रिया को करने के पहिले उसके परिणाम को सूक्ष्मता से विचार करने वाला है और अनासक्त का अर्थ क्रिया हो जाने के बाद उसके शुभ और अशुभ फल को बिना किसी ग्लानि या हर्ष के-समभाव सेसहन कर लेना होता है । निरासक्ति और विवेक का प्रत्येक क्रिया के साथ सम्बन्ध होना चाहिए । साधक प्रत्येक क्रिया को करने के पहिले उसकी उपयोगिता, उससे होने वाला स्व-पर का उपकार और उसके फल का अवश्यमेव विचार करता है। इस तरह क्रिया के हेतु और उसके परिणाम का विचार विवेक है और क्रिया हो जाने के बाद चाहे वह हेतु सिद्ध हो या न हो, चाहे उसका परिणाम सुन्दर आवे वा खराब तो भी अपने चित्त पर किसी प्रकार का असर न होने देने का नाम अनासक्ति है। जो साधक इस तरह विवेकी और निरासक्त होकर तीर्थंकर देव के उपदेशानुसार प्रवृत्ति करता है वही संयम की आराधना करता है।
सूत्रकार दूसरी बात यह फरमाते हैं कि शील (चारित्र ) को मोक्षाङ्ग समझ कर और उसके लाभ को एवं शील के अभाव में होने वाली हानियों को सुनकर वासना और लालसा से रहित बनना चाहिए । जीवनरूपी महल के लिए चारित्ररूप चयन की आवश्यकता होती है। इससे जीवन रसमय, सुन्दर एवं अडोल बन सकता है । शील के भेद टीकाकार ने इस प्रकार किये हैं-(१) महाव्रत साधन (२) तीन गुप्तियों का पालन (३) पंचेन्द्रिय दमन (४) कषायनिग्रह । ये चार शील के प्रकार कहे हैं। इन्हें मोक्ष के अङ्ग समझ कर इनका पालन करना चाहिए। इनके पालन में निमेषमात्र का भी प्रमाद न करना चाहिए। जो सदाचार का पालन नहीं करते हैं वे नरकादि स्थानों में भयंकर यातनाएँ सहन करते हैं यह जानकर साधक को शील-पालन में तत्पर रहना चाहिए । शील (चारित्र) पालने के लिए वासना और लालसा का त्याग आवश्यक है।
पदार्थों के बाह्य आकार पर जो मोह जागता है इसका कारण वासना है और पदार्थों को पकड़ रखने का आग्रह होने का कारण लालसा है। यह पहिले प्रतिपादन किया जा चुका है कि पदार्थों में सुख-दुख देने की शक्ति नहीं है तदपि मोहान्ध प्राणी बाह्य पदार्थों में सुख का आरोप करके उन्हें प्राप्त करना चाहता है और प्राप्त पदार्थों को पकड़ कर रखना चाहता है । इसी में प्राणी की भूल है। यही अशान्ति का कारण है । जब तक वासना और लालसा बनी रहती है तब तक सदाचार का पालन लगभग अशक्य-सा है जितने अंश में मोह और परिग्रह छूटता है उतने ही अंश में सदाचार का पालन है । इस प्रकार काम और झंझा (लालसा) का निषेध करके मोहनीय का निषेध किया गया है। मोह का अभाव शील में प्रधान कारण है । अकाम और अझंझा बनने का उपदेश दिया गया है इससे उत्तर गुण के साथ मूलगुण का भी ग्रहण करना चाहिए । उत्तरगुण में सावधानी रखने का कहने से मूलगुण में सावधान होना स्वयं सिद्ध है। .
इमेण चेव जुज्झाहि, किं ते जुन्झेण बज्झत्रो, जुद्धारिहं खलु दुल्लहं। संस्कृतच्छाया अनेन चेव युध्यस्व किं तव युद्धेन बाह्यतः, युद्धार्ह खलु दुर्लभम् ।
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