SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३७२ । [आचाराङ्ग-सूत्रम् विचारधारा से ही विवेक जागृत होता है। विवेक से ही त्याग हो सकता है और त्याग से ही मुक्ति एवं निर्वाण है। यह विचार-शक्ति भी सहज नहीं प्राप्त होती है। प्राप्त पुरुषों के सत्संग अथवा उनकी वाणी के श्रवण के बिना यह शक्ति सुलभ नहीं । अतएव सूत्रकार ने फरमाया है कि “सुच्चा वई पंडियाण निसामिया" । अर्थात्-तीर्थकर देवों के वचन और गणधरादि आचार्यों के विधिनिषेधात्मक उपदेशों को सुनने से यह विचार और विवेक शक्ति प्रकट होती है। तीर्थङ्करादि प्राप्त पुरुष सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं। हृदय की शुद्धि के बिना सर्वज्ञता नहीं आ सकती । अतएव प्राप्त पुरुष निस्पृह, शुद्धहृदय एवं सत्यदृष्टा होते हैं। ऐसे प्राप्त पुरुषों की संगति जीवन का परिवर्तन कर देती है । शुद्धहृदय वाले संत का एक वाक्य भी हृदय को स्पर्श करता है और वह अनेक जीवों के कल्याण का कारण होता है । इसी श्राशय से सत्संग का महत्त्व है । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि सत्संग का अर्थ किसी व्यक्ति के प्रति मोह होना नहीं लेकिन संत पुरुषों के व्यक्तित्व-गुण-का आकर्षण ही सत्संग है । ऐसा सत्संग सैकड़ों भवों के मोह का निवारण करता है । अतएव सूत्रकार ने फरमाया है कि तीर्थंकरों अथवा तदुपदेश के उपदेष्टा आचार्यों के वचनों को मान्य करके मेधावी साधक, विचार एवं विवेक से सम्पन्न होकर विरति के मार्ग में, पदार्थों का त्याग करके अपरिग्रही बनते हैं। ऊपर यह कहा गया है कि तीर्थकरों के वचनों को श्रवण करने से मेधावी पुरुष निष्परिग्रही बनते हैं। अब प्रश्न होता है कि जिन्हें निरावरण केवलज्ञान एवं केवलदर्शन उत्पन्न हो चुके हैं वे तीर्थंकर वचनयोग का किस समय प्रयोग करते हैं ? इसका उत्तर यह है कि धर्मकथा के अवसर पर तीर्थंकर उपदेश प्रदान करते हैं। पुनः सहज शंका हो सकती है कि तीर्थंकर देवों ने किस प्रकार धर्म का निरूपण किया है इसका उत्तर स्वयं सूत्रकार फरमाते हैं कि समियाए धम्मे पारिएहिं पवेइए । अर्थात्-आर्य तीर्थकर देवों ने समता में (समता से ) धर्म कहा है। सर्वज्ञ पुरुषों ने समभाव की पराकाष्ठा का स्वयं अनुभव किया है इसीसे वे समभाव में धर्म है यह कह सके हैं। सत्य का अनुभवी ही सत्य को भलीभांति कह सकता है, अन्य नहीं। समता का अर्थशत्रमित्र पर समभाव रखना-राग एवं द्वेष पर विजय पाना है । तीर्थक्कर देवों ने इस समता की पराकाष्ठा प्राप्त की है-वे रागद्वेष को जीतकर वीतराग बन चुके हैं। कहा है जो चंदणेण बाहुं आलिंपइ वासिणा व तच्छेति । संथुणइ जो अगिदति महेसिणो तत्थ समभावा । अर्थात्-जो चन्दन से भुजाओं पर लेप करता है और जो करवत या कुठार से भुजा को छेदता है, जो स्तुति करता है और जो निंदा करता है, दोनों पर महर्षि पुरुष समभाव रखते हैं । अहा ! समभाव की पराकाष्ठा !! समभाव का ज्यों ज्यों विकास होता है त्यों त्यों धर्म की आराधना होती जाती है । क्रमशः समभाव की सिद्धि के लिए साधना करते रहने से समता की पराकाष्ठा पर पहुंचा जा सकता है । वीतराग अवस्था ही साधना का साध्य है । अतएव समता की ओर ध्यान देकर-समता को लक्ष्य बनाकर प्रत्येक For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy