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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्ययन तृतीयोदेशक ] सब प्रकार के पदार्थों का त्याग करके ही निष्परिग्रही बनते हैं । हे शिप्य ! तीर्थकर देवों ने समता से ( अथवा समता में ) धम कहा है । उन्होंने यह भी कहा है कि हे साधको ! यहां जिस तरह मैंने कर्म क्षीण किये हैं उस तरह दूसरे मार्गों में कर्म क्षीण करना कठिन है । इसलिए मैं कहता हूँ कि अपनी शक्ति का गोपन नहीं करना चाहिए । 1 [ ३७१ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में निरासक्ति का दुरुपयोग न हो, साधक निरासक्ति के बहाने दम्भ, आडम्बर का सेवन न करे यह प्रतिपादन किया गया है। जो साधक यह अभिमान रखता है कि "मैं तो पदार्थों के बीच में रहकर भी निरासक्त रह सकता हूँ अतएव मुझे पदार्थों के त्याग की आवश्यकता नहीं है" वह साधक आत्मवंचना और दम्भ का सेवन करता है। अनुभव यह कहता है कि परिग्रह का सम्पर्क रखकर निष्परिग्रही नहीं बना जा सकता । अत्यन्त पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए महात्मा विरलरूप से इसके अपवाद हो सकते हैं तदपि निष्परिग्रही बनने के लिए बाह्य पदार्थों का परिग्रह और उन पर होने वाला मोह और आकर्षण सर्वप्रथम छोड़ना चाहिए। जैसे कोई पुरुष अनि हाथ में लेकर ठंडक प्राप्त करना चाहे और ठंडक का जाप जपे तो भी उसे ठंडक नहीं प्राप्त हो सकती और वह उस अभि की ऊष्णता से नहीं बच सकता है उसी तरह जो साधक परिग्रह की अग्नि को साथ में रखकर निरासक्ति की ठंडक शोधना चाहते हैं वे अपने प्रयत्न में निष्फल होते हैं । अतएव निष्परिग्रही बनने के लिए बाह्य पदार्थों का त्याग निवार्य है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पदार्थ के त्यागमात्र से ही निष्परिग्रही बना जा सकता है। तो यह है कि पदार्थ त्याग करने में निरासक्ति होनी चाहिए और निरासक्ति के लिए पदार्थ त्याग होना चाहिए। इस अनेकान्त दृष्टि से श्राचार्य यह फरमाते हैं कि निरासक्ति (निष्परिग्रहीत्व ) के लिए पदार्थ त्याग की अनिवार्य आवश्यकता है । ऊपर यह प्रतिपादन कर दिया गया है कि निष्परिग्रहीत्व के लिए पदार्थ त्याग की आवश्यकता है । ऐसा होते हुए भी पदार्थ त्याग की भावना पैदा होना कोई सहज काम नहीं है। इसका कारण यह है कि अनादिकाल से जीव का ऐसा अभ्यास रहा है कि सुख इन बाह्य पदार्थों में ही रहा हुआ है । यह अनादि कालीन मोह कैसे छूट सकता है ? इसका भी उत्तर सूत्रकार ने इस सूत्र में फरमाया है । सूत्रकार फरमाते हैं कि विवेक और विचार के द्वारा इस चिरकालीन अभ्यास से मुक्ति हो सकती है । सत्यासत्य को परखने की बुद्धि जागृत होने पर अनादिकाल की असत्य को सत्य मानने की प्रवृत्ति छूट सकती है । परन्तु जहाँ तक विवेकबुद्धि जागृत नहीं होती वहाँ तक हिताहित समझने की भी योग्यता नहीं आती तो त्याग की भावना तो आ ही कैसे सकती है ? यह विवेकबुद्धि भी सद्विचार के बाद ही प्रकट होती है । For Private And Personal यहाँ विचार शब्द बड़े महत्व का है। हम सामान्य रूप से जिसको विचार समझते हैं वह विचार नहीं है । वह तो स्वच्छन्द मन का विकल्प जाल है। जो जीवन में अद्भुतता, नवीनता और दिव्य सृष्टि उत्पन्न करे वही विचार है । विचार उन्नति का कारण है। विकल्प पतन का कारण है | विचार और विकल्प का भेद मननीय है । जिस प्रकार तरङ्ग जल का ऊर्ध्वगमन है उसी तरह विचारतरङ्ग अन्तःकरणरूपी जल का ऊर्ध्वगमन है । जिस तरह तरंगें समुद्र को श्रद्धादित करती है, उसी तरह विचार भी अन्तःकरण को आह्लादित करते हैं । सद्विचार का एक किरण जीवन को जगमगा सकता है । अनन्तकाल के अज्ञान और मोहरूपी अंधकार को वह बिखेर देता है। जीवन की जटिल गुत्थियों को देता है । प्रत्येक कार्य के मूल से लगाकर परिणाम तक पहुँचने की शक्ति विचार में हैं । ऐसी
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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