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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३४६ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् ही मनुष्य तत्त्वदृष्टा बनता है । परन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि संशय के पीछे उसका निश्चय जरूर होना चाहिए। संशय तभी ज्ञान रूप में बदलता है जब आत्मा को यह भान होता है कि मैंने जो कुछ जाना और समझा है उससे बाहर भी जानने योग्य है । "मैं पूर्ण नहीं हूँ- मेरा जानना और देखना मिथ्या और सत्याभासी भी हो सकता है" इस तरह की निरभिमान वृत्ति जागृत होती है तो किसी विशिष्ट ज्ञानी पर श्रद्धा होती है और उससे प्रश्न पूछकर निर्णय किया जाता है । तब संशय ज्ञान रूप में परिणत होता है । अन्यथा - जब तक निर्णय न हो तब तक वह घातक भी होता है । जिस संशय के पीछे निर्णय नहीं है वह संशय त्याज्य है । वह आत्म-शान्ति का बाधक है त - एव कहा है कि " संशयात्मा विनश्यति” अर्थात् शंकाशील आत्मा नष्ट होता है । इस कथन का अभिप्राय यह है कि संशय केवल बुद्धि का विषय है। उसका क्षेत्र बुद्धि तक ही ठीक है, वह हृदय को स्पर्श नहीं करना चाहिए। यदि हृदय शंकाशील हो जाय तो इससे हृदय की शक्ति क्षीण हो जाती है और केवल बुद्धि का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। हृदय की शक्ति के बिना बुद्धि सच्चा निर्णय नहीं कर सकती । सत्यनिर्णय अभाव में निश्चित प्रवृत्ति यानि वृत्ति नहीं होती है और उसके बिना सच्चा समाधान और शान्ति असंभव है। मतलब यह है कि तत्त्वनिर्णय के लिए जो संशय होता है वह तो ज्ञान का साधक है और जो संशय हृदय को डांवाडोल बना देता है वह त्याज्य है । संशय उत्पन्न होने के बाद उसका निर्णय अवश्यमेव कर लेना चाहिए। कई ज्ञेय पदार्थ प्रत्यक्ष होते हैं और कई परोक्ष होते हैं। जहाँ तक अपनी बुद्धि पहुँचती है वहाँ तक बुद्धि द्वारा निर्णय करना चाहिए और अन्य बातों का संयोग और अनुमानादि द्वारा भी निर्णय करना पड़ता है। हृदय और बुद्धि दोनों के समन्वय द्वारा संशय का निर्णय करना चाहिए। ऐसा निर्णय हृदय को शान्त, स्थिर और दृष्टा बनाता है । पर्य यह है कि जो संशय पदार्थों के स्वरूप का निश्चय करने के लिए होता है वह तो ज्ञान का साधक है और उसके द्वारा संशयात्मा संसार का दृष्टा बनता है और जो संशय अन्ततः निर्णय के रूप में नहीं बदलता वह हृदय को डांवाडोल बनाता है । अतएव वह हेय और त्याज्य है । वह संशय हृदय को जड़ करता है और जिज्ञासा रूप संशय परमज्ञानी की कोटि में पहुँचाता है । जेए से सागारियं न सेवइ, कट्टु एवमवियाणच बिइया मंदस्स बालया, लगा हुरत्था पडिलेहाए श्रागमित्ता प्राणविज्जा श्रणासेवणय त्ति बेमि । संस्कृतच्छाया - यश्छेकः स सागारिकं ( मैथुनं ) न सेवते, कृत्वैवमपलपतो द्वितीया मंदस्स बालता, लब्धानपि अर्थान् प्रत्युत्प्रेक्ष्य, श्रागम्याज्ञापयेदनासेवनतयेति ब्रवीमि । शब्दार्थ — जे = जो । छेए-कुशल है । से वह । सागारियं =मैथुन का । न सेवइ= सेवन नहीं करता है । एवम् = इस तरह । कट्टु करके | अवियाण = पूछने पर निषेध करता हुआ | मंदस्स=अज्ञानी की । विइया = दूसरी । बालया = मूर्खता समझनी चाहिए । लद्धा = प्राप्त हुए । हुर्=भी | अत्था= कामभोगों का । पडिलेहाए = स्वरूप विचार कर व । श्रागमित्ता = जानकर | अण्णा सेवण्या=नहीं सेवन करने के लिए स्वयं प्रयत्न करे और । आणविजा = दूसरों को भी सेवन न करने का उपदेश दे । चि= ऐसा | बेमि= मैं कहता हूँ । 1 For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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