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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्ययन प्रथमोद्देशक ] [ ३४५ संस्कृतच्छाया—संशयं परिजानतः संसारः परिज्ञातो भवति, संशयमपरिजानतः संसारोऽपरिज्ञातो भवति । शब्दार्थ-संसयं संशय को। परित्राणो जानने वाले को। संसारे संसार का स्वरूप । परिन्नाए-ज्ञात । भवइ होता है । संसयं-संशय को। अपरियाणो नहीं जानने वाले को । संसारे संसार का स्वरूप । अपरिन्नाए ज्ञात नहीं । भवइ होता है। भावार्थ-जो संशय को जानता है वह संसार के स्वरूप को जानता है । जिसने संशय को नहीं जाना वह संसार को भी नहीं जान सकता है। विवेचन-इसके पूर्ववर्ती सूत्र में यह कहा गया है कि अज्ञानी जीव अज्ञान के कारण भूल पर भूल करता जाता है। ऐसा क्यों ? इसका कारण इस सूत्र में बताया गया है कि उनमें भूल को समझने की सच्ची जिज्ञासा वृत्ति उत्पन्न नहीं होती । अथवा पूर्व सूत्र के साथ इसका सम्बन्ध यों जानना चाहिए कि “पहिले कहा गया है कि मोह के कारण प्राणी चतुर्गति रूप संसार कान्तार में भटकता है। इस पर यह प्रश्न होता है कि संसार में न भटकने का उपाय क्या है ? इसका उत्तर यदि यों दिया जाय कि मोह का नाश करने से जीव संसार में नहीं भटकता है तो पुनः प्रश्न होता है कि मोह का नाश कैसे किया जाय ? अगर यह कहो कि ज्ञान द्वारा मोह का नाश करना चाहिए तो स्पष्ट अन्योन्याश्रय दोष श्राता है। ज्ञान हो तो मोह का नाश हो और मोह का नाश हो तो. ज्ञान प्राप्त हो । तो क्या जब तक विशिष्ट ज्ञान न हो जाय तब तक कर्म शमन का उपाय न करना चाहिए ? इस प्रश्न का जवाब इसमें दिया गया है कि ज्ञान के बिना जिज्ञासा वृत्ति से भी प्रवृत्ति होती है अतएव अन्योन्याश्रय दोष का स्थान नहीं है । जानने की इच्छा होना जिज्ञासा है । वस्तु के स्वरूप को पहचानने की तमन्ना जागृत होने से तद्विषयक प्रवृत्तिपुरुषार्थ-की जाती है । यह जिज्ञासा ही ज्ञान का कारण हैं। . . . . . . ... ... ... ... जिज्ञासा-बुद्धि के जागने के बाद जब तक निर्णय न हो जाय तब तक की-बीच की स्थिति को संशय कहा जाता है । सूत्रकार कहते हैं कि जिसे इस प्रकार का संशय होता है वही संसार का ज्ञाता है और जिसे इस प्रकार का संशय नहीं होता है वह संसार का ज्ञाता नहीं हो सकता । यह कहकर सूत्रकार यह बताते हैं कि संशय ही ज्ञान का कारण होता है । ज्ञान के पूर्व इस प्रकार का संशय होना चाहिए। यह संशय ही आगे चल कर निर्णय का कारण होता है। जब तक पदार्थ के स्वरूप के विषय में संशय नहीं होता वहाँ तक उसके सम्बन्ध में प्रश्न नहीं हो सकता और प्रश्न के बिना उत्तर नहीं हो सकता इस प्रकार वहाँ अज्ञान ही रहता है। पदार्थ के विषय में संशय होने से तद्विषयक प्रश्न और उत्तर संभव है और उनके द्वारा उनका निर्णय होता है । इस तरह पदार्थ का ज्ञान होता है। तात्पर्य यह है कि संशय वाला आत्मा ही संसार का दृष्टा बनता है । गौतमस्वामी आदि गणधर भी संशय के कारण हो संसार के दृष्टा बने । शास्त्रकार ने गौतमस्वामी के लिए-जब वे भगवान से प्रश्न करते हैं-ये विशेषण लगाये हैं:जायसंसए, संजायसंसए, उप्पएणसंसए, समुप्पएणसंसए । इनका अर्थ यह है कि प्रश्न करने से पहिले श्री गौतमस्वामी को पदार्थ के विषय में (ज्ञेय के विषय में ) संशय उत्पन्न हुआ। संशय (जिज्ञासा ) उत्पन्न होने के बाद उन्हें तत्त्व जानने का कुतूहल हुअा और विशिष्ट ज्ञानी सर्वज्ञ महावीर के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई और उनसे संशय का निर्णय करने के लिए वे प्रश्न पूछते हैं। कहने का आशय यह है कि संशय होने For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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