________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
६]
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
विवेचन
- यह आगम की पवित्र वाणी है। इन पवित्र आगमों के प्रणेता आप्त-मुख्य सर्वश सर्वदर्शी श्री महावीर भगवान् हैं । 'अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथेति गराहरा निउणम्' अर्थात्अन् तीर्थकर अर्थरूप से आगमों का प्रवचन करते हैं और चतुदर्शपूर्वधारी गणधर उस पवित्र वाणी को सूत्ररूप में गुम्फित करते हैं । इस कथन से अर्थरूप आगम के प्रणेता श्री तीर्थंकर देव और सूत्ररूप आगम के प्रणेता श्री गणधर देव सिद्ध होते हैं ।
अनुयोगद्वार सूत्र में श्रागम के तीन भेद बताये हैं- आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम । अर्थ की अपेक्षा से श्री तीर्थकर देव का श्रागम श्रात्मागम है। सूत्र की अपेक्षा से गणधरों का गम गम है क्योंकि सूत्र उनके द्वारा रचे हुए हैं । अर्थ की अपेक्षा से गणधरों का श्रागम अनन्तरागम है क्योंकि उन्होंने यह अर्थ श्री तीर्थंकर देव से ग्रहण किया है । गणधर के श्रादि शिष्य के लिए सुत्ररूप आगम अनन्तरागम है और अर्थरूप श्रागम परम्परागम है क्योंकि सूत्ररूप आगम तो उन्होंने स्वयं गणधर देव से प्राप्त किया है और अर्थरूप आगम तो तीर्थंकरगणधर की परम्परा से प्राप्त किया है। इसके बाद की शिष्य-परम्परा के लिए और हमारे लिए यह आगम सूत्र और अर्थ - उभय रूप से परम्परागम है ।
सर्वज्ञ और सर्वदर्शी तीर्थकर जिनके प्रणेता हैं और चतुर्दश पूर्वधारी गणधर श्री सुधर्मस्वामी जिनके संकलनकर्त्ता हैं उनकी सत्यता और प्रामाणिकता में भला क्या सन्देह हो सकता है ?
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि श्री महावीर स्वामी के इन्द्रभूति गौतम प्रमुख ग्यारह गणधर थे उनमें से सुधर्मस्वामी ही संकलनकर्ता हैं यह कैसे निश्चय किया जा सकता है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए श्री भद्रबाहु स्वामी आवश्यक नियुक्ति के गणधर - प्रकरण में कहते हैं
तित्थं च सुम्मा निरवच्चा गणहरा संसा |
अर्थात् - सुधर्मस्वामी से ही तीर्थ प्रवर्तित हुआ है, शेष गणधर निरपत्य -- शिष्य रहित थे । इससे स्पष्ट हो जाता है कि श्री सुधर्मस्वामी ने अपने शिष्य श्री जम्बूस्वामी को यह सम्बन्ध ग्रन्थ कहा है ।
श्री सुधर्मस्वामी ने "सुयं मे" इस पद के द्वारा श्रागम की श्राप्त-प्रणीतता, अपना विनयभाव और आत्मा का कथञ्चिद् नित्यानित्यत्व सूचित किया है । "हे श्रायुष्मन् जम्बू ! मैंने यह भगवान् के मुखारविन्द से सुना है" इसका अभिप्राय यह है कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ वह मेरा नहीं अपितु भगवान् का ही कथन है । भगवान् ही इस अर्थरूप आगम के प्ररूपक हैं। वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी तथा वीतराग है अतएव उनके वचन विश्वसनीय और प्रामाणिक हैं । उनमें पूरी पूरी श्रद्धा रखनी चाहिए। भगवान् के अर्थरूप आगम का ही यह सूत्रमय अनुवाद है अतएव यह सब कथन भगवान् का समझकर उस पर हार्दिक श्रद्धा और अखण्ड विश्वास रखना चाहिए । इस कथन से आगमों की आप्त-प्रणीतता सिद्ध होती है । अर्थात् सर्वज्ञ-पुरुष के द्वारा कहे हुए यह श्रागम प्रमाण हैं, यह सिद्ध होता है ।
For Private And Personal
मीमांसक दर्शन अपने वेद रूप ग्रागम को अपौरुषेय मानता है । उसके मत से कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं हो सकता है इसलिए वह वेद को पुरुष-कृत न मानकर अपौरुपेय मानता है । वह