SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम उद्देशक ] [ ५ दिसावा या मंसि (सु. २) एवमेगेसिं णो णायं भवइser मे आया उववाइए, पत्थि मे श्राया उववाइए, के ग्रहमंसि ? के वा Fr चुr se पेचा भविस्सामि (सु. ३) ? संस्कृतच्छायाश्रुतं मया, आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम् - इहैकेषां नो संज्ञा भवतितद्यथा पूर्वस्या वा दिशः श्रागतोऽहमस्मि, दक्षिणस्या वा दिशः आगतो ऽहमस्मि, पश्चिमाया वा दिशः श्रागतोऽहमस्मि, उत्तरस्या वा दिशः श्रागतोऽहमस्मि, ऊर्ध्वदिशः वा श्रागतोऽहमस्मि, अधोदिशः वा आगतोऽहमस्मि, अन्यतरस्या वा दिशोऽनुदिशो वा श्रागतोऽहमस्मि, एवमेकेषां न ज्ञातं भवति, अस्ति मम आत्मा औपपातिकः, नास्ति ममात्मोपपातिकः, कोऽहमासम् ? को वा इतश्च्युतः इह प्रेत्य भविष्यामि ? 1 1= शब्दार्थ-सुयं मे आसं=हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है । तेणं भगवया–उन भगवान् ने । एवमक्खायं ऐसा कहा है । इहमेगेसिं= इस संसार में एक-एक जीवों को । सएगा णो भवइ = ज्ञान नहीं होता । तंजहा=जैसा कि । पुरत्थिमाओ दिसाओ = पूर्व दिशासे । आगओ ग्रह मंसि=आया हूँ । दाहिणाओ वा दिसा आ० = दक्षिण दिशा से आया हूँ । पचत्थिमाओ ० = पश्चिम दिशा से आया हूँ | उत्तराओ वा०=उत्तरदिशा से आया हूँ । उड्ढाओ ० ऊर्ध्व दिशा से आया हूँ । अहो ० : नीची दिशा से आया हूँ । अरणयरीओ वा दिसाओ = किसी भी एक दिशा से । अदिसा वा० = किसी भी विदिशा से आया हूँ । एवं इस प्रकार । एगेसिं= कितने ही जीवों को। गो गायं भवइ - ज्ञान नहीं होता है । अत्थि मे आया उववाइए = मेरी आत्मा पुनर्जन्म करने वाली है । णत्थि मे आया उववाइए=मेरी आत्मा पुनर्जन्म करने वाली नहीं है । के अहमंसि - मैं कौन था । के वाचु इह पेचा भविस्सामि = यहाँ से चलकर परलोक में क्या होऊँगा । भावार्थ — श्रीधर्मस्वामी अपने प्रिय शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! मैंने सुना है उन भगवान् महावीर ने इस प्रकार प्रतिपादन किया है कि इस संसार में कई जीवों को यह ज्ञान नहीं होता कि- मैं पूर्व दिशा से आया हूँ या दक्षिण दिशा से आया हूँ अथवा पश्चिम दिशा से आया हूँ या उत्तर दिशा से आया हूँ। मैं ऊर्ध्व दिशा से आया हूँ या अधोदिशा से आया हूँ अथवा किसी एक दिशा या विदिशा ( चार कोण और अन्तराल ) से आया हूँ । कई जीवों को यह भी ज्ञान नहीं होता कि मेरी आत्मा जन्मान्तर में संचरण करने वाली है या नहीं ? मैं पूर्वजन्म में कौन था ? यहां से मरकर दूसरे जन्म में क्या होऊँगा ? १टीकानुसारेण 'भवइ' पर्यन्तं द्वितीयसूत्रावतरणम् । चूर्यभिप्रायेण तु 'भविस्सापि' पर्यन्तम् द्वितीयसूत्रोपसंहारः । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy