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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्ययन तृतीयोद्देशक ] किया इससे विद्वत्ता की व्याख्या मालूम होती है। केवल पुस्तकीय ज्ञान होना ही विद्वत्ता नहीं है लेकिन जहाँ ज्ञान के साथ तद्रूप आचरण होता है वहाँ विद्वत्ता समझनी चाहिए। वाणी और व्यवहार की एकरूपता ही सच्ची विद्वत्ता है। ऐसे विद्वान् ही उपदेशक हो सकते हैं और वे ही अनुभवी होने से स्वपर के कल्याण-साधक हो सकते हैं । इस प्रकार की योग्यता वाले उपदेशक अपने ज्ञान और चारित्र (आचरण) के प्रभाव से सत्य-मार्ग का यथार्थ प्ररूपण करके जनसमाज को सत्य-मार्ग पर प्रवर्तित कर सकते हैं। ऐसे ही पुरुषों के वचन श्रद्धेय और आचरणीय हैं। इह प्राणाकंखी पंडिए,अणिहे, एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं । जहा जुन्नाई कट्ठाइं हव्ववाहो पमत्थइ एवं अत्तसमाहिए अणिहे। संस्कृतच्छाया-इह आज्ञाकाङ्क्षी पण्डितोऽस्निहः एकमात्मानं संप्रेक्ष्य धुनीयात् शरीरं, कृशं कुर्वात्मानम्, जरीकुर्वात्मानम् । यथा जीर्णानि काष्ठानि हव्यवाहो प्रमथ्नाति एवमात्मसमाहितः अस्निहः ( कर्मकाष्ठं दहतीति भावार्थः) शब्दार्थ-इह इस संसार में । आणाकंखी सर्वज्ञों की आज्ञा का पालन करने की इच्छा रखने वाला । पंडिए-पंडित । अणिहे राग रहित होकर । अप्पाणं प्रात्मा को। एगं= अकेला । संपेहाए जानकर । सरीरं शरीर को । धुणे धुने-सुखावे । अप्पाणं अपने आपको । कसेहि कृश करो। अप्पाणं जरेहि अपने आपको जीर्ण करो। जहा=जिस प्रकार | जुन्नाइं= जीर्ण । कट्ठाई-काष्ठ-लकड़ी को । हव्ववाहो-अग्नि । पमत्थइ=भस्मसात् करती है । एवं इसी तरह । अत्तसमाहिए-सदा उपयोग वाला अप्रमत्त । अणिहे आसक्ति-रहित साधक कर्मों को भस्म कर डालता है। भावार्थ—इस संसार में सर्वज्ञों की आज्ञा का पालन करने की इच्छा रखने वाला, पंडित साधक रागद्वेष से रहित होकर, अपनी आत्मा के एकत्व का विचार करके तपश्चरण द्वारा अपने शरीर को कृश करे इसी तरह अपनी चित्तवृत्तियों का दमन करके उन्हें जीण और कृश करे । जिस प्रकार जीर्ण और सूखे हुए काठ को अग्नि शीघ्र भस्म कर डालती है उसी प्रकार आत्मा को समाधि में रखने वाला अप्रमत्त और आसक्तिरहित साधक कर्मों को शीघ्र भस्म कर देता है। विवेचन-पूर्ववर्ती सूत्र में तत्त्वदर्शी पुरुषों द्वारा कर्मों का त्याग करने की परिज्ञा को समझाने का विवेचन किया है । अब इस सूत्र में इस परिज्ञा को जानकर क्या करना चाहिए यह बताया जाता है। सूत्रकार फरमाते हैं कि जो वीतराग की आज्ञाओं का पालन करने का अभिलाषी है, जो उनके उपदेशानुसार अनुष्ठान करना चाहता है तथा जो विद्वान् है उसे स्नेह (राग) से रहित बनना चाहिए। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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