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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३१६ ] [ श्राचाराङ्ग-सूत्रम - श्रसत्प्रवृत्ति ही पापकर्म है और पाप का परिणाम ही दुख है। अतएव दुखों का आत्यंतिक क्षय करने के लिए आरम्भ (असत्प्रवृत्ति) का त्याग करना चाहिए । असत्प्रवृत्ति के त्याग के द्वारा सत्य को जीवन में उतारना चाहिए । असत् प्रवृत्ति का त्याग करते हुए अगर शरीर शुश्रूषा को छोड़ना पड़े तो भी सत्य का शोधक उसके प्रति किंचित् भी ध्यान नहीं देता है । सत्य के सामने देह की क्या कीमत हो सकती है ? पहिले यह कहा गया है कि संयम के निर्वाह के लिए शरीर एक उपयोगी साधन है अतएव उसके प्रति एकदम निरपेक्ष नहीं रहना चाहिए; अब यहाँ यह कहा गया है कि शरीर की परवाह नहीं करनी चाहिए इन दोनों बातों की संगति कैसे समझनी चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि पहिले शरीर को संयम का साधन कह कर उसकी बिल्कुल उपेक्षा न करने का कहा गया था यहाँ उसकी मर्यादा बतायी गई है। साधक अपने देद की शुश्रूषा करे लेकिन वह वहीं तक जहाँ तक संयम में उपयोगी हो। जिस शरीर की शुश्रूषा से विकास रुक जाता है, या जिससे आत्मवृत्ति कम होकर बहिर्वृत्ति जागृत होती है वह शरीर शुश्रूष वर्जनीय है। सच्चा साधक शरीर को विकास का एक साधन समझता है। जब तक वह साधन अपने साध्य में उपयोगी हो वहीं तक वह साधन है। जब वह साधन साध्य का साधक न होकर बाधक हो जाता है तब वह साधन ही नहीं रहता । इसी तरह जहाँ तक शरीर संयम के पालन में सहाक होता है वहीं तक हारादि द्वारा उसका निर्वाह करना चाहिए। इसके विपरीत शरीर की सेवा से संयम में बाधा पहुँचने लगती हो या शरीर की सेवा में संयम भुला दिया जाता हो तब शरीर की परवाह न करके उसका दमन करना चाहिए। इसी उद्देश्य से तपश्चर्या की आवश्यकता है । "मुच्चा" इस पद का संस्कृत रूप "मृताच" होता है। इसका एक अर्थ तो शरीर का संस्कार न करने वाला होता है, जो कि ऊपर किया गया है। दूसरा अर्धा का अर्थ होता है तेज-क्रोध । क्रोध कषाय का उपलक्षण है । तो इसका अर्थ हुआ कषायों से रहित । जो आरम्भ से रहित, कषाय से रहित, धर्म के ज्ञाता और सरल स्वभावी होते हैं वे मनुष्य कर्मों का क्षय करते हैं । उपर्युक्त कथन सामान्य पुरुषों का नहीं लेकिन जो तत्त्वदर्शी और पारगामी हैं उनका यह प्रवचन है । तत्त्वदर्शी पुरुष कैसे होते हैं इसका भी सूत्रकार ने सूत्र में वर्णन किया है। वे तत्त्वदर्शी पुरुष दुख-नाश के उपाय को तथा कर्मों के स्वरूप को जानने में कुशल होते हैं। वे अत्यन्त मितभाषी होते हैं तदपि यथावस्थित वस्तु के प्रतिपादन में प्रवीण होते हैं । वे शारीरिक और मानसिक दुखों के चिकित्सक होते हैं । जिस प्रकार वैद्य रोग का निदान करता है और तदुपरान्त रोग नाश के लिए औषधोपचार करता है, इसी तरह तत्त्वदर्शी पुरुष दुखों का निदान करते हैं और दुखों का नाश करने के लिए तत्पर होते हैं । संसार के दुख रोगों के लिए वे कुशल वैद्य के समान होते हैं। वे कर्मों के मूल एवं उत्तर भेदों को भलीभांति जानते हैं और कर्मों का बन्ध न हो इसके लिए वे परिज्ञा का उपदेश करते हैं। कर्मों का बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता को जानकर वे हेय तत्वों को ज्ञ-परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान- परिज्ञा द्वारा त्यागने का उपदेश देते हैं । वे स्वयं विवेक-बुद्धि द्वारा पदार्थ के स्वरूप को जानकर असत् का त्याग करने वाले होते हैं । तत्वदर्शी पुरुष मात्र विद्वान होते हैं इसलिए उन पर विश्वास और श्रद्धा रखनी चाहिए ऐसा नहीं है परन्तु उन्होंने अपने जीवन का विकास करके अनुभव प्राप्त किया है इसलिए उनके वचन ग्राह्य और श्रद्धेय हैं। न केवल श्रद्धेय हैं अपितु श्रचरणीय हैं । सूत्रकार ने तत्त्वदर्शी पुरुष के गुणों का वर्णन For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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