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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रथम उद्देशक ] [ ३ यदि अन्धे और पङ्गु का परस्पर सहयोग हो तो वे वन में लगे हुए दावानल से बचकर पार हो सकते हैं । यदि वे परस्पर निरपेक्ष हों तो दोनों जल कर नष्ट हो जायेंगे । अन्धे और पशु के सहयोग के समान ज्ञान और क्रिया परस्पर सापेक्ष होने से इष्ट फल प्रदान करने वाले हो सकते हैं । एकान्त ज्ञाननयवादी कहते हैं कि ज्ञान ही प्रधान है, क्रिया नहीं; क्योंकि उपादेय का उपादान और हेय का त्याग ज्ञानाधीन ही है । ज्ञानरहित की जाने वाली क्रिया अनर्थकारिणी होती है । ज्ञान होने पर सब क्रियाएँ व्यवस्थित हो सकती हैं । ज्ञान के अभाव में किया करने में प्रवृत्त व्यक्ति पतन की तरह अनर्थ का भागी होता है। इसलिए ज्ञान ही मोक्ष का मुख्य साधक है । कहा भी है विज्ञप्ति: फलदा पुंसां न किया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य फलांसवा ददर्शनात् ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अर्थात् - शादी इट फल का साधक होता है, क्रिया नहीं । ज्ञान के बिना की जाने वाली क्रिया अभी फल बाकी नहीं होती है । इसलिए ज्ञान की प्रधानता है । मी तरह क्रिया-प्रधानवादी कहते हैं--क्रिया ही प्रधान है क्योंकि ज्ञान के द्वारा जान लेने पर भी यदि क्रिया न की जाय तो वह ज्ञान निष्फल ही होता है । औषधि का ज्ञान कर लेने मात्र से बीमारी दूर नहीं होती औषधि का सेवन ही बीमारी को दूर कर सकता है। मोदक का ज्ञान हो जाने से ही संतोष नहीं होता । उसका आस्वादन करने से ही आनन्द आता है । कहा भी है क्रियैव फलदा पुंसां न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥ अर्थात- क्रिया ही फल देने वाली है। ज्ञान नहीं। क्योंकि स्त्री, भक्ष्य और भोग को जानने मात्र से कोई सुखी नहीं होता । वस्तुतः उक्त दोनों ही एकान्त पक्ष युक्तियुक्त नहीं हैं। एक पक्ष की युक्तियों से दूसरे पक्ष का ater स्वयं हो जाता है । अतः थे दोनों पक्ष प्रमाण रहित हैं । इन दोनों का समन्वय ही इष्ट फल का साधक है। यही बात इस सूत्र के प्रथम अध्ययन के नाम से प्रकट होती है । इस अध्ययन का नाम 'शस्त्र - परिक्षा' अध्ययन है । सामान्यतया 'परिक्षा' शब्द का अर्थ विवेक कहा जा सकता है। विवेक से केवल ज्ञेय पदार्थ का ज्ञान ही अपेक्षित नहीं है परन्तु हेयउपादेय का भी उसमें समावेश हो जाता है । इसीलिए जैनशास्त्र में परिज्ञा के दो भेद बताये गये हैं : -- ( १ ) ज्ञ परिज्ञा और ( २ | प्रत्याख्यान परिक्षा । ज्ञ परिक्षा में ज्ञान को अवकाश है और प्रत्याख्यान परिक्षा में त्यागमय किया को । शास्त्रकार ने "गाणस्स फलं चिरई” कहकर उसी ज्ञान को यथार्थ ज्ञान माना है जो क्रिया रूप से जीवन-व्यवहार में उतारा गया हो। इस प्रकार 'परिक्षा' शब्द ज्ञान और क्रिया का समन्वय करने वाला है । साथ ही साथ इससे यह भी ध्वनित होता है कि अनन्त धर्मात्मक वस्तु को अनेक दृष्टि-बिन्दुओं से देखने और समझने में ही ज्ञान की यथार्थता है । 'शस्त्रपरिश' नाम में 'शस्त्र' शब्द हिंसक भावना या हिंसा के साधनों का द्योतक है । शस्त्र For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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