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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् सूत्ररूप में संकलित करते हैं । यही अनादिकाल की परिपाटी है और रहेगी। इसका कारण बताते हुए नियुक्तिकार श्री भद्रबाहु स्वामी कहते हैं कि- आचार ही प्रवचन का सार है । यही मोक्ष का प्रधान हेतु है । इसके अध्ययन के बाद ही शेष अंगों के अध्ययन की योग्यता प्राप्त होती है अतएव आचार को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। प्राचार ही परम और चरम कल्याण का परम साधक है, यह बताने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं गाणं किं सारो ? यारो, तर हवइ किं सारो ? श्रोत्थो सारो, तम्स वि परूवणा सारो ॥ सारो परूवणाएं चरणं तस्स वि य होई निव्वाणं । निव्वाणस्स उ सारो अव्वाबाहं जिणा विति ॥ अर्थात् - अंगों का सार आचार है । आचार का सार उसका व्याख्यान है । व्याख्यान का लार प्ररूपणा है । प्ररूपणा का सार चारित्र है । चारित्र का सार निर्वाण है और निर्वाण का सार श्रव्याबाध सुख है । तात्पर्य यह है कि श्राचार, परम्परा से अव्यावाघ सुख का देने वाला है। यही कारण है कि आचार - शास्त्र का इतना अधिक महत्व और प्रचलन है। निर्वाण-सुख में प्रमुख कारणभूत होने से आचार का अत्यधिक महत्त्व है । इस महत्त्वपूर्ण रत्न का दान सर्व साधारण को नहीं दिया जाता । इस दान को प्राप्त करने वाले में भी विशेष योग्यता होनी चाहिए। आचार-दान की विधि को समझाने के लिए टीकाकार ने दृष्टान्त दिया है कि: किसी राजा ने नवीन नगर बसाने के श्राशय से अपनी प्रजा को समान रूप से भूमि प्रदान की और उन्हें कंकर - पत्थर, कांटे, कूडा-कचरा आदि दूर कर सम-भू-भाग करने, उस पर पक्की ईंटों की पीठिका और उस पर भव्य महल खड़ा करने की आज्ञा प्रदान की । महल खड़ा हो जाने के बाद उसमें रत्न श्रादि विविध मूल्यवान् सामग्री रखने का आदेश दिया। प्रजाजनों ने भी राजा की शानुसार भूमि की शुद्धि की और उस पर महल खड़ा कर लिया। बाद में विविध सुखों का उपभोग करते हुए वे सुखपूर्वक रहने लगे। इसी प्रकार राजा के समान आचार्य का यह कर्त्तव्य है कि वह पहले अपने शिष्य रूपी प्रजाजनों का मिथ्यात्वरूपी कूडाकचरा दूर कर उनमें संयम का रोपण करे । सामायिक चारित्र में स्थिर करने के पश्चात् पक्की ईंटों की पीठिका के समान व्रतों का आरोपण करे; उसके पश्चात् आचार रूपी महल खड़ा करे । आचार रूपी महल के खड़े हो जाने पर उसमें शेष शास्त्र रूपी रत्न सुरक्षित रह सकते हैं और वह निर्वाण सुख का अधिकारी हो सकता है । यही आचार-दान की महत्त्वपूर्ण भूमिका है । आवाराङ्ग के प्रथम अध्ययन का 'शस्त्रपरिशा' नाम देकर ज्ञान और क्रिया का अनुपम समन्वय सूचित किया गया है। जैनधर्म ज्ञान और क्रिया के समन्वय से ही मोक्ष होना मानता है। "ज्ञान- क्रियाभ्याम् मोक्षः" यह उसका प्रधान सूत्र है। ज्ञान और क्रिया यदि परस्पर निरपेक्ष हों तो वे इष्ट के साधक नहीं हो सकते । क्रिया-रहित ज्ञान पशु है और ज्ञान-रहित क्रिया अन्धी है । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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