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चतुर्थ अध्ययन द्वितीयोदेशक ]
[३०३
संस्कृतच्छाया-इहमेकेषां तत्र तत्र संस्तवो भवति अध औपपातिकान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयंति, भृशम् कर्मभिः करैः भृशं परितिष्ठति, नात्यर्थ करैः कर्मभिः नो भवं परितिष्ठति । एके वदन्ति अथवाऽपि ज्ञानी, ज्ञानिनो वदन्ति अथवाऽप्येके ।
शब्दार्थ-इह इस संसार में । एगेसिं-एकेक भारीकर्मी जीवों को । तत्थ तत्थ=उन उन नरकादि स्थानों से । संथवो खूब परिचय । भवइ होता है वे । अहोववाइए नरकादि स्थानों में होने वाले । फासे दुखों का। पडिसंवेयंति-वेदन करते रहते हैं। चिटु अत्यन्त । कूरेहि कम्मेहिं-करकर्म करने से । चिट्ठ अति भयङ्कर दुख वाले नरकादि स्थान में । परिचिट्ठइ उत्पन्न होता है । अचिट्ठ कूरेहिं कम्मेहि अत्यन्त क्रूरकर्म न करने से ।नो चिटु दुखी स्थानों में नहीं। परिचिट्ठइ उत्पन्न होता है। एगे श्रुतकेवली । वयंति कहते हैं । अदुवावि-अथवा । नाणी केवली कहते हैं नाणी केवलज्ञानी । वयंति कहते हैं । अदुवावि वही । एगे श्रुतकेवली कहते हैं।
भावार्थ- इस संसार में कतिपय ऐसे भी भारी-कर्मी जीव होते हैं जिनको नरकादि के दुखों को भोगने का मानो शौक लग गया हो । वे जीव घोर पापकर्म करके उन स्थानों में उत्पन्न होकर विविध प्रकार के दुख भोगा करते हैं । अत्यन्त क्रूरकर्म करने से अति भयंकर दुख वाले स्थान में उत्पन्न होना पड़ता है और जो जीव अति करकर्म नहीं करते हैं उन्हें ऐसे दुखमय स्थानों में उत्पन्न नहीं होना पड़ता है।
इस प्रकार जो सत्य श्रुतकेवली पुरुष कहते हैं वही केवलज्ञानी पुरुष कहते हैं और जो केवलज्ञानी कहते हैं वही सत्य श्रुतकेवली पुरुष भी संसारियों को प्रतिबोध देने के लिए कहते हैं ।
___ विवेचन-पूर्ववर्ती सूत्र में यह कहा गया है कि जो जीव इच्छाओं के गुलाम हैं और अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए जो सावध कार्यों में मशगूल रहते हैं वे पुनः पुनः जन्म-मरण करते हैं। अब इस सूत्र में यह बताया गया है कि पुनः पुनः जन्म-मरण करने से उन दुखों के साथ उनका गाढ़ परि. चय हो जाता है । दुखों को सहन करते हुए जीवात्मा को दुख सहन करने की टेव पड़ जाती है ।
जिस प्रकार कोई भी मनुष्य प्रथम तो कारागृह (जेलखाने) में जाने से डरता है लेकिन चार पाँच बार जेलखाने में रह आने के बाद उसके लिए कारागार सहज घर के समान हो जाता है, उसी प्रकार जिसने अति घोर कष्ट सहन किये हैं वह जीवात्मा दुखों को सहन करने का ऐसा अभ्यस्त हो जाता है कि पीछे उसे दुखों का भय ही मानों नहीं रहता । इस कथन का आशय यह है कि जीवात्मा को अपने किए हुए कर्मों का अच्छा बुरा अनुभव बार बार हुआ करता है तो भी वह अपनी मूढ प्रवृत्ति को सुधारने का प्रयत्न नहीं करता है इस पर से ज्ञानी पुरुष यह अनुमान करते हैं कि कदाचित् यह दुख सहन करने का अभ्यस्त हो गया है नहीं तो अपने आप क्यों इस तरह बार बार फंसता है ? प्राणी जान बूझकर कोई प्रवृत्ति तब करता है जब उसे उस बात का शौक हो । पुनः पुनः दुःख सहन कर चुकने पर भी प्राणी दुःखोत्पादक क्रूर कर्म करता है इससे मालूम होता है कि दुःख के साथ इसका गाढ़ परिचय हो गया है और
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