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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [आचाराङ्ग-सूत्रम् परवा न करके अपने आपको अजर-अमर मानकर पाप के कार्यों में मस्त रहता है। हा हा! कितना आश्चर्य ! कितनी मुग्धता! संसारासक्त प्राणी जन्म से लगाकर मृत्यु के प्रथम क्षण तक सांसारिक प्रपञ्चों में इस प्रकार मशगूल रहता है मानों उसे मृत्यु आएगी ही नहीं। लेकिन यह तो निश्चित है कि जो जन्म धारण करता है वह मरता है। राजा, महाराजा, सम्राट् , चक्रवर्ती, देव और देवों का अधिपति इन्द्र तक काल के गाल में पड़े हुए हैं। बालक, युवा अथवा वृद्ध, नर या नारी, देव और दानव सभी मृत्यु के विकराल पंजे में पकड़े हुए हैं । कहा है वदत यदीह कश्चिदनुसंततसुखपरिभोगलालितः । प्रयत्नशतपरोऽपि विगतव्यथमायुरवाप्तवान्नरः ॥ अर्थात्-कवि पूछता है कि बोलो, यहाँ सदा सुख के परिभोग के द्वारा लाड़ लड़ाया हुआ, व सैकड़ों प्रयत्न करने पर भी दुख और व्यथा रहित एक भी मनुष्य है ? एक भी नहीं । देवताओं के समूह, विद्या वाला, असुर और किन्नरों का नायक और मनुष्य कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो यमराज के दाँत रूपी वन के प्रहार से कृश होकर मृत्यु को न पाये । धर्म के परिपूर्ण आराधन के सिवाय काल को जीतने का कोई उपाय नहीं । मंत्रवादियो के मंत्र, तन्त्रवादियों के तन्त्र, डाक्टरों और वैद्यों की औषधियाँ, ज्योतिषियों के ज्योतिष और वैज्ञानिकों के आविष्कार मृत्यु पर विजय प्राप्त करने में असमर्थ हैं और असमर्थ ही रहेंगे । मृत्यु को जीतने का एक मात्र उपाय संयम की अप्रमत्त आराधना है। तीर्थकर देवों ने मृत्यु को जीतकर मृत्युञ्जय बनने के लिए संयम रूपी संजीवनी बूटी का दान किया है। जो विधिपूर्वक इस संयम-संजीवनी का प्रयोग करता है वह मृत्युञ्जय बनकर अमर हो जाता है। इसके विपरीत जो प्राणी विषय और कषायों में गृद्ध होते हैं वे पुनः पुनः जन्म-मरण करते हैं। जो प्राणी इन्द्रिय और मन के विषयों के अनुकूल गति करते हैं वे इच्छा-प्रणीत कहलाते हैं। जो व्यक्ति इच्छा-प्रणीत अर्थात्-इच्छाओं के दास हैं और इसलिए वंकानिकेत-असंयम का आश्रय लेने वाले हैं वे प्राणी सावद्य कर्मों का बन्धन करने में मशगूल रहते हैं। वे मृत्यु के द्वार पकड़े हुए होते हैं तदपि उसकी परवाह न करते हुए पापकों द्वारा कर्म-संग्रह करते हैं और फलस्वरूप विभिन्न योनियों में जन्म-मरण करते हैं। ____ कहीं कहीं "एत्थ मोहे पुणो पुणो” यह पाठान्तर भी पाया जाता है उसका अर्थ यह है कि इन्द्रियों के अनुकूल कर्मरूप मोह में डूबे हुए व्यक्ति बार-बार ऐसे कर्म करते हैं कि वे संसार से मुक्त न होकर परिभ्रमण करते ही रहते हैं । अर्थात्-आशा से बंध कर जन्म-मरण करते हैं और पुनः आशा के पाश में बँध जाते हैं इस तरह भव परम्परा का कभी अन्त नहीं आता है। अतएव मुमुक्षु साधक आशा के बन्धनों को तोड़कर संयम के आराधन में सदा अप्रमत्त रहे। इहमेगेसि तत्य तत्थ संथवो भवइ, अहोववाइए फासे पडिसंवेयंति, चिट्ठ कम्मेहिं कूरेहि चिट्ठ परिचिट्ठइ, अचिट्ठ कूरेहि कम्मेहिं नो चिट्ठ परिचिट्टइ, एगे वयंति अदुवावि नाणी, नाणी वयंति अदुवावि एगे। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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