SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्ययन प्रथमोदेशक ] [ २८६ तं आइत्तु न निहे न निक्खिवे जाणित्तु धम्मं जहा तहा, दिटेहिं निव्वेयं गच्छिज्जा, नो लोगस्सेसणं चरे। . संस्कृतच्छाया-तमादाय न गोपयेत् न निक्षिपेत् ज्ञात्वा धर्म यथा तथा, दृष्टैर्निर्वेदं गच्छेत् नो लोकस्यैषणां चरेत् । शब्दार्थ-जहातहा=यथार्थ रूप से । धम्म-धर्म को। जाणित्तु जानकर । तं-उस सम्यग्दर्शन को । आइत्त-ग्रहण करके । न निहे प्रमादी न बने । न निक्खिवे उसका त्याग न करे । दिदुहिं दिखने वाले रंग-राग में। निव्वयं गच्छिन्जा वैराग्य धारण करे। लोगस्सेसणं= दुनिया की देखादेखी । नो चरे–न करे। __भावार्थ- अहिंसामय निर्दोष धर्म के यथार्थ स्वरूप को जानकर और उस पर पूर्ण श्रद्धा करके , उसमें प्रमादी न बने और ग्रहण करने के बाद संयोगों के वश होकर कदापि उसका त्याग न करे । दुनियां के दिखाई देने वाले रंग-राग में वैराग्य धारण करे और दुनियां का अन्ध-अनुकरण भी न करे । ___ विवेचन-प्रथम सूत्र में शुद्ध अहिंसामय धर्म का प्ररूपण किया गया है। धर्म और अहिंसा में सूर्य और किरण सा सम्बन्ध है अतएव जहाँ अहिंसा है वहाँ धर्म है और जहाँ धर्म है वहाँ अहिंसा है। जहाँ हिंसा है वहाँ धर्म नहीं और जहाँ धर्म है वहाँ हिंसा नहीं यह स्पष्ट बात है। इससे यह फलित होता है कि धर्म के नाम पर सूक्ष्म हिंसा भी क्षन्तव्य नहीं है । हिंसा करके धर्म का अनुष्ठान करने की आशा रखना सर्प के मुख से अमृत झरने की आशा के समान है। भला यज्ञ में निर्दोष मूक पशुओं के वध से क्या धर्म हो सकता है ? इसी तरह अन्य भी हिंसा के कार्य करके उनसे धर्म का पालन समझना मिथ्या है । जहाँ जितने अंश में अहिंसा है वहाँ उतने ही अंश में धर्म है । धर्म के इस यथातथ्य ( वास्तविक) स्वरूप को जानकर इस पर सम्पूर्ण श्रद्धा करके इसके पालन में अल्पमात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । जब किसी वस्तु का स्वरूप जान लिया जाता है और उस पर पूरा विश्वास हो जाता है तब अगर वह वस्तु इष्ट है तो उसका ग्रहण कर लिया जाता है और यदि वह अनिष्ट है तो छोड़ दी जाती है। जब किसी संसारी प्राणी को यह मालूम हो जाता है कि यह मार्ग में पड़ी हुई चीज़ सोने की है तो वह उसे उठाने में प्रमाद नहीं करता। इसी तरह सर्प को देखकर उसे हाथ से पकड़ने की कोशिश नहीं करता है क्योंकि उसे विश्वास है कि इसे हाथ से पकडूंगा तो यह काट खाएगा । इसी तरह जब यह विश्वास और सम्यग्दर्शन हो जाता है कि अहिंसामय धर्म ही तथ्य है तो उसके पालन में प्रमाद नहीं होना चाहिए। जब यह मालूम हो जाता है और पूरी श्रद्धा हो जाती है कि हिंसा और प्रमाद बुरा है तो उसका सेवन क्यों करना चाहिए ? इसलिए सूत्रकार कहते हैं कि पूरी श्रद्धा होने के बाद उसके पालन में प्रमाद नहीं होना चाहिए। अगर प्रमाद है तो इसका अर्थ यह हुआ कि जैसी चाहिए वैसी पूरी श्रद्धा नहीं है । कई लोग ऐसा कहते हैं कि "हम धर्म में कुछ समझते ही नहीं, हममें अमुक धार्मिक क्रियाएँ करने की शक्ति ही नहीं, हमने धार्मिक ग्रन्थों का अवलोकन किया ही नहीं, हम तो विविध प्रकार के संसार के प्रपञ्चों में फंसे हुए हैं हम से क्या धर्म हो सकता है ?" ऐसा कहने वाले लोग केवल अपना प्रमाद सूचित करते हैं। अगर हृदय में For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy