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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २८८] [प्राचाराग-सूत्रम् है। अहिंसा की विमल छाया के नीचे संसार सुख की नींद ले सकता है। जो धर्म ऐसी अहिंसा का पाठ पढ़ावे, वही सच्चा और सनातन है। यह अहिंसामय धर्म ही नित्य है, शाश्वत है एवं शुद्ध है। अनन्त तीर्थक्करों ने अहिंसामय धर्म कहा है, कहते हैं और कहेंगे । इसीसे अहिंसा धर्म की नित्यता सिद्ध होती है । जैसे काल की आदि और अन्त नहीं है । इसी तरह अहिंसा धर्म अनादि अनन्त है । यह अहिंसा धर्म शाश्वतगति (मोक्ष) का कारण है अतएव शाश्वत है और यह धर्म कर्ममल से निर्लेप करने वाला है, श्रात्मा को पवित्र बनाने वाला है अतएव शुद्ध है । अहिंसामय जैनधर्म नित्य है, शाश्वत है और शुद्ध है। चंकि अहिंसाधर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है अतएव यह किसी सम्प्रदाय, समाज या मजहब के लिए नहीं है परन्तु प्राणीमात्र के लिए है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें किसी खास व्यक्ति या किसी खास समूह के लिए नहीं हैं परन्तु प्राणीमात्र के लिए हैं इसी प्रकार तीर्थङ्करों ने यह उपदेश किसी खास व्यक्ति, मजहब या पक्ष के लिए नहीं दिया लेकिन प्राणीमात्र के लिए दिया है। अन्य देहधारियों की अपेक्षा मानव का पुरुषार्थ और बुद्धि स्वाधीन है अतएव उनको सम्बोधन करके भगवान् ने यह अहिंसा का उपदेश फरमाया है। सूर्य के प्रकाश की तरह निरपेक्ष भाव से प्रभु देशना देते हैं। जो धर्म में उद्यत हैं, जो धर्म में उद्यत नहीं हैं, जो उपदेश सुनने आये हैं, जो नहीं आये हैं, जो हिंसा से निवृत्त है, जो हिंसा से निवृत्त नहीं हैं. जो मुनि हैं, जो गृहस्थ हैं, जो रागी हैं, जो त्यागी हैं, जो योगी हैं, जो भोगी हैं सब के लिए भगवान ने यह अहिंसामय धर्म प्ररूपित किया है। जो धर्म में उद्यत हैं, त्यागी हैं और दण्ड से निवृत्त हैं उनके गुणों की स्थिरता के लिए और जो अनुद्यत हैं, भोगी हैं, हिंसा से निवृत्त नहीं हैं उनको धर्म में उद्यत करने के लिए, त्याग का पाठ सिखाने के लिए, हिंसा से निवृत्त करने के लिए प्रभु का उपदेश होता है। संसार में प्रत्येक प्राणी को धर्मतत्त्व की अनिवार्य आवश्यकता रहती है। कोई भी प्राणी धर्म से पृथक नहीं रह सकता जोकि विकास की अपेक्षा तरतमता पायी जाती है। धर्म और अहिंसा में सूर्यकिरण का सम्बन्ध है। जहाँ जितने अंश में अहिंसा है वहाँ उतने ही अंश में धर्म है। अहिंसा के बिना धर्म नहीं और धर्म के बिना अहिंसा नहीं। इस प्रकार का अहिंसामय धर्म जैनशासन में विशेषतया कहा गया है । जिन-प्रवचन में कहे जाने का तात्पर्य यह है कि: "जैन" शब्द किसी कुल, जाति या समाज की संज्ञा नहीं है किन्तु यह गुणवाचक है। जो जैन गुणों को धारण करे वह जैन । जैनधर्म का द्वार संसार के प्रत्येक मनुष्य तो क्या पशु के लिए भी खुला है। यहाँ जाति का कोई बन्धन नहीं है । उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है कि-'न दीसह जाइविसेस कोऽवि।। जाति से किसी की महत्ता नहीं है। दूसरी बात यह है कि जैनधर्म ने अहिंसा की जैसी व्यापक व्याख्या की है वैसी और कहीं भी देखने में नहीं आती । प्राचीन काल में जैन के सिवाय इतर वर्ग में अहिंसा की इतनी उदार और व्यापक परिभाषा न थी और यज्ञों में पशुओं का बलिदान किया जाता था। इस प्रकार धर्म के नाम पर रूढि, बहम और अज्ञानता के कारण की जाने वाली हिंसा को धर्म समझा जाता था। इस विकृति के कारण सूत्रकार ने यह कहा है कि यह अहिंसामय धर्म जिन-प्रवचन में ही विशेष रूप से कहा गया है। इस अहिंसा-मय धर्म पर शुद्ध श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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