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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्ययन प्रथमोदेशक ] [२८३.. हुआ आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों को कुछ कम एक कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति वाले कर लेता है और कर्मों के तीत्र अनुभाग को मन्द करता है यह प्रयोग लब्धि है। इसके पश्चात् करणलब्धिःहोती है । आत्मा के परिणाम को करण कहते हैं । करण तीन हैं--(१) यथाप्रवृत्ति करण (२) अपूर्वकरण, . और (३) अनिवृत्ति करण । प्रयोग-लब्धि से सात कर्मों की स्थिति को कुछ कम एक कोडाकोड़ी सागरोपम की कर देने वाले आत्मा के परिणामों में विशेष शुद्धि होना यथाप्रवृत्ति करण कहलाता है । यह करण अभव्य जीवों को भी होता है । इस परिणाम के पश्चात् परिणामों में और शुद्धि होती है जिसके कारण अनादिकालीन रागद्वेप की निविडतम ग्रन्थि को भेदने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है और प्रन्थि-भेद कर भी डालता है । ऐसा पूर्व में कभी नहीं किया अतः इसे अपूर्व-करण कहते हैं। अपूर्व-करण के बाद और विशेष शुद्धि होना अनिवृत्ति करण कहलाता है । इस करण के करने से सम्यक्त्व प्राप्त होता है। सम्यक्त्व के तीन प्रकार हैं-(१) औपशमिक सम्यक्त्व (२) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और (३) क्षायिक सम्यक्त्व । यथाप्रवृत्तिकरण से कर्मों की कुछ कम एक कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति करने पर, अपूर्वकरण में ग्रन्थि-भेद करने पर और मिथ्यात्व का उदय न होने पर अनिवृत्तिकरण द्वारा प्रथम जो सम्यक्त्व होता है वह औपशमिक समकित है। कहा भी है ऊसरदेसं दड्ढेल्ल यं च विज्झइ वणदवो पप्प । इयमिच्छत्ताणुदए उवसमसम्म लहइ जीवो।। अर्थात्-जिस प्रकार ऊसर और दग्ध भूमि को प्राप्त होकर दावाग्नि स्वयमेव बुझ जाती है उसी तरह मिथ्यात्व के उदय में न आने पर जीव उपशम सम्यक्त्व पाता है। अथवा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियाँ-यों सात प्रकृतियों के उपशम से होने वाला समकित औपशमिक है । उदय-प्राप्त मिथ्यात्व-मोहनीय का क्षय और उदय में नहीं आये हुए मिथ्यात्व का उपशम और सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से होने वाला सम्यक्त्व क्षायोपशमिक है। पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के क्षय से होने वाला क्षायिक है । क्षायिक समकित अप्रतिपाती है अर्थात् एक बार आ जाने पर फिर नहीं जा सकता। शेष दो आने पर पुनः जा भी सकते हैं। तदपि. समकित में ऐसी अद्भुत शक्ति है कि जिसने समकित का स्पर्श कर लिया वह संसार को परिमित कर देता है और अर्द्ध पुद्गल-परावर्तन काल में अवश्य मोक्ष में जाता है। निर्यक्तिकार ने यह कहा है कि है समकितपूर्वक-शुद्ध ध्येय से किये हुए तपश्चरण चारित्रादि सफल होते हैं । यदि कोई उपाधि से तप आदि करता है तो वह सफल नहीं होता है। इसको स्पष्ट करने के लिए नियुक्तिकार ने कहा है: श्राहारउवहिपूाइड्ढीसु य गारवेसु कइतवियं । एमेव बारसविहे तवम्मि न हु कइतवे समणो ॥ अर्थात्-आहार, उपाधि, पूजा अामर्षोषधि इत्यादि लब्धियों को प्राप्त करने के लिए तथा तीन प्रकार के (ऋद्धि, रस और साता ) गौरव में फंसा हुआ अगर कोई ज्ञान पढ़े या चारित्र पाले तो वह कृत्रिम है । इसी प्रकार ऐसी वासनाओं में फँसा हुआ कोई बारह प्रकार का तप करे तो वह कृत्रिम है। अतएव वह सफल नहीं है । जो कृत्रिम अनुष्ठान करता है वह साधुता के गुण से दूर है । अतएव सम्यक्त्वी की ही क्रियाएँ सफल होती हैं यह जानकर सम्यक्त्व में यत्न करना चाहिए। ... For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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