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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २८२ ] [ श्राचाराङ्ग-सूत्रम् उसने आकर वीरसेन को पकड़ लिया । जब शूरसेन को यह वृत्तान्त मालूम हुआ तो वह राजा की आज्ञा लेकर युद्ध में गया और तीक्ष्ण बाण-वर्षा के द्वारा शत्रु को परास्त करके वीरसेन को बन्धन - मुक्त किया । इस तरह वीरसेन अच्छा अभ्यास और उद्यम करने पर भी नेन की विकलता के कारण अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सका । इसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र कार्य सिद्धि नहीं कर सकते । नियुक्तिकार ने कहा है - कुणमाणोऽवि निवित्ति, परिचयंतोऽवि सयणघणभए । दितोऽवि दुहस्स उरं मिच्छदिट्ठी न सिज्झइ उ || Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अर्थात् - यमनियमादि निवृत्ति करते हुए भी, कुटुम्ब, धन और भोगों का त्याग करने पर भी, पञ्चाग्नि तप आदि के द्वारा शारीरिक कष्ट सहन करने पर भी मिध्यादृष्टि सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता है। तु शब्द अवधारण सूचक है अर्थात् मिध्यादृष्टि मोक्ष नहीं ही पा सकता है। जिस प्रकार अन्ध कुमार शत्रु सेना को जीतने में असमर्थ रहा त्यों ही मिध्यादृष्टि मुक्ति नहीं ही पा सकता। वह सिद्धि प्राप्त करने में असमर्थ है। आगे नियुक्तिकार कहते हैं: तम्हा कम्माणीचं जेउमणो दंसम्म पजइज्जा | दंसण हि सफलाणि हुंति तवनाणचरणाई || अर्थात् कर्मरूपी सेना को जीतने की इच्छा रखने वाले को सम्यग्दर्शन में प्रयत्न करना चाहिए । क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना कर्मों का क्षय नहीं हो सकता । सम्यक्त्वी के किए हुए तप, ज्ञान और चारित्र ही सफल होते हैं अतः सम्यक्त्व के लिए यत्न करना चाहिए। सम्यक्त्व आत्मा का स्वाभाविक धर्म है परन्तु अनादिकाल से दर्शन - मोहनीय कर्म के कारण आत्मा का यह गुण आवृत्त है । ज्यों ही दर्शन - मोहनीय कर्म दूर हुआ कि सम्यक्त्व गुण इस प्रकार प्रकट हो जाता है जैसे मेघों के दूर होने पर सूर्य । इस प्रकार दर्शन - मोहनीय के दूर होने को और सम्यक्त्व गुण प्रकट होने को समकित की प्राप्ति होना कहा जाता है । समकित की प्राप्ति दो तरह से होती है; निसर्ग से और अधिगम से । तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है. " तन्निसर्गादधिगमाद्वा" । जो सम्यक्त्व बिना गुरु आदि के उपदेश से होता है वह निसर्गज कहलाता है और जो गुरु आदि के उपदेश से हो वह अधिगमज कहलाता है । सम्यक्त्व प्राप्ति का क्रम इस प्रकार है: जैसे तीव्र वेगवाली नदी में बहने वाला पत्थर अन्य पत्थरों और चट्टानों से टकराता- टकराता गोल-मोल हो जाता है इसी प्रकार जीव नाना-योनियों में भ्रमण करता हुआ और अनेक शारीरिक और मानसिक कष्टों को सहन करता हुआ कर्मों की निर्जरा करता है। उसके प्रभाव से उसे पाँच प्रकार की प्राप्त होती हैं ( १ ) क्षयोपशम लब्धि (२) विशुद्धि लब्धि (३) देशना लब्धि ( ४ ) प्रयोग लब्धि (५) करण लब्धि । अनादिकाल से परिभ्रमण करते हुए संयोग वश ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की शुभ प्रकृतियों के अनुभाग को ( रस को ) प्रति समय अनन्त गुना न्यून करना क्षयोपशम लब्धि है । इस प्रकार अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग के मन्द होने से परिणामों की अशुभता में हानि होती है जिससे शुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं यह विशुद्धि-लब्धि है। विशुद्धि-लब्धि के प्रभाव से तत्त्वों के प्रति रूचि उत्पन्न होती है और उन्हें जानने की इच्छा होती है, यह देशनालब्धि है। तदन्तर जीव अपने परिणामों को शुद्ध करता For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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