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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २७४ ] ..[आचाराङ्ग-सूत्रम् सत्तमासपरियाए सणंकुमारमाहिंदाणं देवाणं, अट्टमासपरियाए बंभलोगलंतगाणं देवाणं, नवमासपरियाए महासुक्कसहस्साराणं देवाणं, दसमासपरियाए प्राणयपाणयारणच्चुत्राण देवाण, एगारसमासपरियाए गेवेजाणं बारसमासे समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेयलेस्सं वीइवयइ, तेण परं सुक्के सुक्काभिजाई भवित्ता तो पच्छा सिज्झइ । अर्थात-गौतमस्वामी भगवान महावीर से प्रश्न करते हैं कि हे भगवान् ! वर्तमान में जो श्रमण निर्ग्रन्थ विचरते हैं वे किसकी तेजोलेश्या को प्राप्त करते हैं ? भगवान् फरमाते हैं कि हे गौतम ! जो श्रमण निर्ग्रन्थ एक मास तक संयम-पर्याय पालता है वह वानव्यन्तर देव को तेजोलेश्या प्राप्त करता है, दो मास संयम-पर्याय वाला असुरेन्द्र को छोड़कर शेष भवनपति देवों की तेजोलेश्या पाता है। तीन मास की संयम-पर्याय वाला असुरकुमार की, चार मास की दीक्षा-पर्याय वाला ग्रह, नक्षत्र तारा रूप ज्योतिष्क देवों की, पांच मास की दीक्षा वाला चन्द्र-सूर्य की, छह मास दीक्षा वाला सौधर्म ईशान देवों की, सात मास-दीक्षा वाला सनत्कुमार माहेन्द्र देवों की, आठ मास की दीक्षा वाला ब्रह्मलोक और लान्तक देवों की, नव मास की दीक्षा वाला महाशुक्र और सहस्रार की, दस मास की दीक्षा वाला आनत प्राणत तथा आरण अच्युत की, ग्यारह मास की दीक्षा वाला ग्रेवेयक देवों की, बारह मास की दीक्षा वाला अनुत्तरोपपातिक देवों की तेजोलेश्या प्राप्त करता है । तत्पश्चात् शुक्ल लेश्या को प्राप्तकर केवलज्ञानी बन कर मोक्ष को प्राप्त करता है। उक्त रीति से लोक-संयोग का त्याग करने वाला साधक उत्तरोत्तर आगे बढ़ता है और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । ऐसा साधक दीर्घ जीवन और असंयमित जीवन की इच्छा नहीं करता। क्योंकि वह अपने ध्येय पर पहुँच जाता है। जिसका ध्येय पूरा न हुआ हो वही जीवन की वांछा करता है । वह साधक अपना साध्य सिद्ध कर लेता है अतएव वह जीवन की कामना से मुक्त हो जाता है। ___ एगं विगिंचमाणे पुढो विगिंचइ, पुढो वि एगं, सड्डी प्राणाए मेहावी लोगं च प्राणाए अभिसमेचा अकुशोभयं, अत्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं। संस्कृतच्छाया-एक क्षपयन् पृथग् क्षपयति, पृथगपि ( क्षपयन् ) एक ( क्षपयति ) श्रद्धावान् प्राज्ञया मेधावी लोकं चाज्ञयाभिसमेत्याकुतोभयं । अस्ति शस्त्रं परेण परं, नास्ति अशस्त्रं परेण परम् ।। शब्दार्थ-एगं=एक को । विगिंचमाणे=क्षय करने वाला । पुढो अनेक को । विगिचइ=क्षय करता है। पुढो वि अनेक को खपाने वाला। एग-एक को खपाता है । सडढी= श्रद्धावान् । प्राणाए तीर्थङ्कर की आज्ञा के अनुसार । मेहावी-बुद्धिमान् । प्राणाए आज्ञा के द्वारा । लोगं लोक को । अभिसमेच्चा-जानकर । अकुप्रोभयं किसी को भय न हो ऐसा वर्ताव करे । सत्थं-शस्त्ररूप असंयम । परेण परं अत्थि-चढाव उतार रूप है । असत्थं अशस्त्र-संयम । परेण परं-उतार चढाव रूप । नत्थि नहीं है । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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