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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - तृतीय अध्ययन चतुर्थीदेशक ] [ २७३ है और ममता के बन्धनों को तोड़ डालता है । ज्ञ-परिज्ञा द्वारा वह यह जान लेता है कि संसार दुखमय है और उस दुख के कारण कर्म हैं । यह जानकर वह प्रत्याख्यान- परिज्ञा द्वारा कर्मों को त्यागने के लिए प्रयत्न करता है । सच्चे वीरों के लिए यही पुरुषार्थ है कि वे संसार के मूल को उखाड़ फेंके और मोक्ष में stars साम्राज्य स्थापित करें। भौतिक वीरों की वीरता इस आध्यात्मिक वीरता के सामने किसी गिनती नहीं । भौतिक वीर तो आन्तरिक शत्रु के सामने कायर बनकर दुम हिलाने लगते हैं परन्तु आत्मवीर उन शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं। रावण बड़ा भारी योद्धा और वीर था किन्तु वह भी काम-वश होकर आत्मबल वाली सीता के आगे निष्प्रभ हो जाता है। समझने की बात है कि रावण की पाशविक वीरता सच्ची वीरता है या सीता की आत्मिक वीरता सच्ची है ? कहना होगा कि सीता का आत्म-बल सच्चा बल है । यह समझ कर कर्मविदारण करने में वीर और धीर साधक संयम के मार्ग में प्रयास करते हैं। सूत्रकार से " महाजाणं” पद दिया है । " यान्त्यनेन मोक्षमिति यानम्” अर्थात् जिसके द्वारा मोक्ष में जाते हैं उसे यान कहते हैं। यह यान संयम ही है। इस 'यान' के भी सूत्रकार ने महत् विशेष लगाया है । इसका अभिप्राय यह है कि कोटि-भव - दुर्लभ चारित्र को प्राप्त करके भी यदि उसमें प्रमाद का सेवन किया जाय तो वह चारित्र स्वप्न में प्राप्त हुए अखूट धन के समान हो जाता है इसलिए 'महत्' विशेषण लगाकर सूत्रकार ने यह बताया है कि संयम में रत्नत्रय की सम्यग् आराधना करनी चाहिए । अथवा "महाजाग" का " महद्यानं सम्यग्दर्शनादित्रयं यस्य स महायानो - मोक्षः इस प्रकार बहुव्रीहि समास करने पर यह अर्थ होता है सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय हैं यान जिसके ऐसे मोक्ष को प्राप्त करते हैं । पुनः प्रश्न होता है कि क्या एक ही भव में महा-यान रूप चारित्र से मुक्ति हो जाती है अथवा परम्परा से होती है ? इसका उत्तर यह है कि दोनों तरह से मुक्ति होती है। अगर योग्य क्षेत्र और योग्य काल हो और कर्म विशेष न हों तो उसी भव में मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, नहीं तो अन्य भव में भी मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है । ज्यों ज्यों संयम की श्राराधना होती है, त्यों त्यों आत्मिक विकास होता जाता है और उत्तरोत्तर ऊर्ध्व गति प्राप्त होती है । इसलिए सूत्रकार ने कहा कि "परेण परं जंति” अर्थात् उच्च और उच्च अवस्था प्राप्त होती है । सम्यक्त्व प्राप्त होने से नरकगति और तिर्यञ्चगति का बँध नहीं पड़ता है । सम्यक्त्व- पूर्वक ज्ञानाराधन करके और संयम का पालन करके आयुष्य के क्षय से कितनेक जीव सौधर्म आदि देवलोक में उत्पन्न होते हैं। पुण्य शेष होने से कर्म भूमि, श्रार्य क्षेत्र, सुकुलोत्पत्ति, श्रारोग्य, श्रद्धा, श्रवण और संयम को पाकर सर्वोच्च अनुत्तरोपपातिक देवलोक में जाते हैं और वहाँ से मनुष्य भव में आकर समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करते हैं । यह परम्परा-मोक्ष कहलाता है । अथवा “परेण परं जंति” इस पद का अर्थ यह है कि सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान से उत्तरोत्तर चौदहवें गुणस्थान (अयोगिकेवली) तक जाते हैं । अथवा अनन्तानुबन्धी का क्षय करके अध्यवसायों की विशुद्धि करते हुए दर्शन और चारित्र - मोहनीय का क्षय करते हैं और भवोपग्राही कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करते हैं अथवा उत्तरोत्तर तेजोलेश्या प्राप्त करते हैं । आगम में कहा है जे इमे अत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति एएणं कस्स तेयलेस्सं वइिवयंति ? गोयमा ! मासपरिया समणे निग्गंथे वाणवंतराणं देवाणं तेयलेस्सं वइिवयंति एवं दुमासपरियाए असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीं देवा, तिमासपरियाए असुरकुमाराणं देवाणं, चउमासपरियाए गहगणनक्खत्ततारारूवाणं जोइसियाणं देवाएं, पंचमासपरियाए चंादमसूरियाणं जोइसिंदाणं जोइसराईण तेयलेस्सं, छम्मासपरियाए सोहम्मीसाणाणं देवाणं, For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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