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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नृतीय अध्ययन तृतीयोदेशक ] [२५६ से किया हुआ तपश्चरण श्रादि आत्मा के लिए हितकर नहीं होता । श्रात्माभिमुख होकर और सत्य को लक्ष्य में रखकर जो क्रिया की जाती है वही आत्म-साधिका होती है। यह बाम-जीवन और बाह्य पदार्थ केले के गर्भ के समान निस्सार हैं। जिस प्रकार केले के पत्र एक के बाद एक निकलते ही जाते हैं उनमें से सार नहीं निकलता है इसी प्रकार ये बाह्य पदार्थ सारहीन और असार हैं। तथा जिस प्रकार बिजली अति चञ्चल है उसी तरह ये बाह्य पदार्थ अस्थिर हैं। इस असार और अस्थिर जीवन के लिए और परिवन्दन, मानन और पूजादि के लिए, हिंसादि पापकर्म करना क्या अच्छा है ? परिवन्दन का अर्थ है मनुष्यों के द्वारा स्तुति और प्रशंसा का किया जाना अर्थात् वचन द्वारा कीर्ति करना परिवन्दण है ।मान का अर्थ है-माननीय के आने पर उठ जाना, आसन-प्रदान करना, अञ्जलि जोड़ना आदि । पूजा का अर्थ है वस्त्रादि के दान के द्वारा सत्कार करना । लोग वचन द्वारा मेरी कीर्ति करें, मेरी प्रशंसा में गीत बनावें, मेरे आने पर मेरे सत्कार के लिए उठे, मुझे उच्च आसन प्रदान करें, वस्त्रादि द्वारा सन्मान करें, इस भावना से प्रेरित होकर साधक अनुचित पापकर्म में प्रवृत्त हो जाते हैं। इतना ही नहीं लेकिन ऐसे कार्यों द्वारा जब उन्हें कीर्ति मिलती है तो वे उसमें मशगूल हो जाते हैं-उसमें अद्भुत आनन्द मानते हैं । परन्तु सूत्रकार फरमाते हैं कि ये आत्महित के लिए नहीं है । जिस कार्य के लिए-जिस उद्देश्य से बाह्य पदार्थों का त्याग करके चारित्रमार्ग अङ्गीकार किया है उसकी इससे सिद्धि नहीं होती। ये क्रियाएँ संसार-समुद्र से पार नहीं कर सकतीं। सत्यदृष्टि को सन्मुख रखकर-आत्माभिमुख होकर जो क्रियाएँ की जाती हैं वे ही साध्य को सिद्ध कर सकती हैं। उन्हीं से मोक्ष हो सकता है। ___ साधना के मार्ग में साधक को संकट और प्रलोभन उपस्थित होते हैं । ऐसे समय साधक को विह्वल न होकर संसार के आकर्षण से दूर रहना चाहिए । संकटों की अपेक्षा प्रलोभनों में विशेष सावधान रहने की आवश्यकता है। द्वेष की अपेक्षा राग को जीतना कठिन है। यद्यपि आये हुए संकटों को-मानसिक वृत्ति के प्रतिकार के सिवा-शान्ति से सहन करने में कम आत्मसामर्थ्य की अपेक्षा नहीं रहती लेकिन इससे भी अधिक सावधानी प्रलोभनों के संयोगों में रखनी चाहिए क्योंकि प्रलोभनों के निमित्तों से मन चञ्चल होने पर शीघ्र पतन हो जाता है । यह पतन इतना गहरा और भयंकर होता है कि पुनः उत्थान की ओर अग्रसर होना कठिन हो जाता है । अतएव ज्ञानियों का यह अनुभव है कि प्रलोभनों के निमित्तों की अपेक्षा संकट के निमित्त कम हानि-कारक हैं । अतः साधक का यह कर्त्तव्य है कि दुखों से और प्रलोभनों से विह्वल न हो और सत्य-लक्ष्य की ओर बढ़ता रहे । जिस प्रकार एक कुशल नट रस्सी पर चलता है । उसके आस-पास एक तरफ गहरी और भयंकर खाई है और दूसरी तरफ नुकीले पत्थरों काढेर है। ऐसे समय में ही उसकी कार्यदक्षता की कसौटी होती है। इसी तरह जिस साधक ने सत्य-दृष्टि को साध्य बना लिया है-सत्य ही जिसका एक मात्र लक्ष्य है-वह अनेक इष्ट और अनिष्ट निमित्तों से गुजरता हुआ भी उनकी ओर नहीं देखता है । वह हृदय पर भय, राग व द्वेष का प्रभाव नहीं पड़ने देता । ऐसा साधक धीरे-धीरे अपनी मंजिल तय कर लेता है। सच्चा समदृष्टि और मोक्षार्थी साधक लोक के समस्त प्रपञ्च से मुक्त हो जाता है। "लोयालोयपवंचायो" का अर्थ है कि "लोके आलोक्यते इति लोकालोकः” लोक में दिखाई देने वाले प्रपञ्चों से मुक्त हो जाता है । शास्त्रकार ने पहिले कह दिया है कि "पासगस्स उवाही णत्थि” समदृष्टि For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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