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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २५८ ] [श्राचाराङ्ग-सूत्रम् उसके सच्चे स्वरूप को निरखना ही सत्य है । जिसने इस सत्य को अपने जीवन में उतारा है वह साधक संसार-समुद्र से समुत्तीर्ण हो जाता है। उसका कल्याण हो चुकता है। यह सत्य ही साधक का ध्येय होना चाहिए और इसी सत्यमय जीवन के लिए सकल पुरुषार्थ करने चाहिए। सत्य ही साधना का साध्य है। दुहनो जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जंसि एगे पमायति । सहिरो दुक्खमत्ताए पुट्ठो नो झंझाए, पासिमं दविए लोयालोयपवंचाश्री मुच्चइ ति बेमि । ___ संस्कृतच्छाया-दिहतः जीवितस्य परिवंदनमाननपूजनार्थ, यस्मिन्ने के प्रमाद्यन्ति । सहितः दुःखमात्रया स्पृष्टः नो व्याकुलितमतिर्भवेत्, पश्येमं द्रव्यः लोकालोकपपञ्चान्मुच्यते, इति बर्वामि । शब्दार्थ-दुहओ-रागद्वेष वाला साधक । जीवियस्स जीवन के । परिवंदणमाणणपूयणाए चन्दन, सत्कार और पूजा के लिए पापकर्म करते हैं । जंसि=जिसमें । एगे-कितनेक । पमायंति-खुशी मानते हैं । सहियो ज्ञानसम्पन्न साधु । दुक्खमत्ताए-दुख की मात्रा से । पुट्ठो= स्पृष्ट होने पर । नो झंझाए-नधवरावे । पास इमं यह देख । दविए ऐसे साधु । लोयालोयपवंचाश्रो संसार के प्रपञ्च से । मुच्चइ-मुक्त हो जाते हैं। त्ति बेमि=ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ-राग और द्वेष से कलुषित कतिपय साधक इस क्षण-भंगुर जीवन के लिए, कीति, मान और पूजा प्राप्त करने के लिए पापकर्म करने में मशगूल रहते हैं और ऐसे पापकम से प्राप्त कीर्ति आदि में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। इसलिए साधक साधना के मार्ग में आने वाले दुख या प्रलोभनों से व्याकुल न हो । हे प्रिय जम्बू ! मैं कहता हूँ कि समदृष्टि और मोक्षार्थी साधक संसार के समस्त प्रपंचों से मुक्त हो जाते हैं। विवेचन-इसके पूर्ववर्ती सूत्र में सत्य-दृष्टि को ध्येय बनाने का कहा गया है। इसी ध्येय से की गई साधना सफल हो सकती है । वस्तु का स्वरूप अधिक स्पष्ट करने के लिए स्वरूप का कथन और पर-रूप की व्यावृत्ति का कथन आवश्यक है। धर्म का स्वरूप समझने के लिए अधर्म का स्वरूप जानना जरूरी है। धर्म से होने वाले लाभ के साथ अधर्म से होने वाली हानियाँ जानने से धर्म की ओर विशेष प्रवृत्ति हो सकती है। इसी तरह अप्रमाद के गुण-वर्णन के बाद सूत्रकार प्रमाद से होने वाली हानियाँ बताकर उनसे निवृत्ति करने का उपदेश देते हैं। __ साधक अवस्था में जिनके विषय-लिप्सा आदि विकार नष्ट हो गये हों ऐसे साधक मिल जाते हैं परन्तु ऐसे साधकों को भी कीर्ति, मान, पूजा और प्रतिष्ठा का भूत लग जाता है। यह प्रतिष्ठा का लोभयह कीर्ति-लालसा साधना के सत्य-ध्येय को भुला देती है और साधक रागद्वेष में फंसकर संसार-वृद्धि कर लेता है। इसलिए सूत्रकार यह बताते हैं कि साधक का ध्येय-कल्याणार्थी का लक्ष्य बाह्य आकर्षण नहीं लेकिन सत्य ही होना चाहिए । आत्माभिमुख होना ही सच्चा लक्ष्य होना चाहिए । कीर्ति आदि की लालसा For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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