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तृतीय अध्ययन तृतीयोदेशक ] के बन्धन के कारण व उनके उदय के कारण दुखरूप होती है अतः वैरी है। श्रात्म-परिणति को ही यहाँ
आत्मा कहा गया है। शुभ और शुद्ध प्रात्म-परिणति अपना वास्तविक उपकार कर सकती है अतएव वही मित्र है।
यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि सूत्र में तो "तुम" पद है और उसका अर्थ आत्मा से है फिर यहाँ आत्म-परिणति को मित्र कहा है तो क्या आत्मा और आत्मपरिणति में भेद नहीं हैं ? यहाँ आत्म-परिणति को मित्र कहने का क्या प्रयोजन है ? ____ इस प्रश्न का समाधान यह है कि द्रव्य और पर्यायों की अभिन्न विवक्षा से इस प्रकार कहा गया है। आत्मा द्रव्य है और प्रात्मपरिणति पर्याय है। द्रव्य और पर्याय में कथञ्चित् अभिन्नता है । इस अपेक्षा से आत्मा का अर्थ आत्मपरिणति लिया गया है । जिस प्रकार स्वर्ण के कलश को स्वर्ण और मिट्टी के घड़े को मिट्टी कहना युक्त है क्योंकि स्वर्ण द्रव्य है और कलश पर्याय है; मिट्टी द्रव्य है और घड़ा पर्याय है। द्रव्य और पर्याय की कथञ्चित् अभिन्नता है हो । वैसे ही आत्मा रूप उपादान से आत्मपरिणति होती है अतः आत्मपरिणति को आत्मा कह सकते हैं।
तात्पर्य यह हुआ कि शुभ परिणति वाला आत्मा ही सच्चा मित्र है। यह सूत्र साधक प्राणियों में स्वावलम्बन की स्फूर्ति उत्पन्न करता है । ठीक इसी तरह का उपदेश श्री कृष्ण ने अर्जुन को दिया है। गीता में कहा है:
उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।। अर्थात हे अर्जन ! तुम ही तुम्हारे उद्धारक हो । मनुष्य को चाहिए कि वह अपना उद्धार प्राप ही करे । वह अपनी अवनति स्वयं न करे । क्योंकि प्रत्येक मनुष्य स्वयं अपना बन्धु ( हितकारी) है और स्वयं अपना शत्रु है। बौद्ध धर्म के मान्य ग्रन्थ धम्मपद में भी इसी प्रकार कहा गया है:
अत्ता हि अत्तनो नाथो अत्ताहि अत्तनो गति । ...
तस्मा संजमयऽत्ताणं अस्सं भई व वाणिजो ॥ (धम्मपद, ३८०) श्रात्मा ही स्वयं अपना स्वामी है और आत्मा के सिवा हमें तारने वाला दूसरा कोई नहीं है इसलिए जिस प्रकार कोई व्यापारी अपने उत्तम घोड़े का संयमन करता है उसी प्रकार हमें अपना संयमन आप ही भलीभांति करना चाहिए।
उपर्यक्त सभी कथनों का सार यह है कि प्रात्मा ही अपना मित्र है क्योंकि आत्मा ही प्रात्यन्तिक, ऐकान्तिक और पारमार्थिक सुख को देने वाला है । आत्मा जैसा हितकारी है वैसे ही अशुभ परिणति वाला आत्मा अपना अति अनिष्ट करने वाला शत्रु है। बाह्य शत्रु भौतिक अथवा शारीरिक हानि पहुँचा सकता है, वह आत्मा को हानि नहीं पहुंचा सकता है। कोई शत्र धन छीन सकता है, कोई मकान को नुकसान पहुंचा सकता है, कोई शारीरिक अवयय का छेदन कर सकता है और अधिक से अधिक शरीर का अन्त कर सकता है । इससे बढ़कर वह आत्मा को नुकसान नहीं पहुँचा सकता। धन, मकान और
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