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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २५२ ) राङ्ग-सूत्रम् विवेचन-पूर्व सूत्र में मुमुक्षु के लिए संयम का अनुष्ठान करने का कहा गया है। यह संयम का अनुष्ठान आत्म-समागे से ही सफल हो सकता है इसलिए सूत्रकार इस सूच में यह प्रकट करते हैं कि आत्मा अनन्त शक्ति-सम्पन्न है । आत्मा ही परम मित्र (सहायक) है। बाहर के मित्रों की क्या आवश्यकता है ? हे पुरुष देहधारी आत्मन् ! तू जो कुछ चाहता है, अनन्त काल से जो तेरा लक्ष्य बन रहा है और तू जो कुछ पाने के लिए लालायित हो रहा है वह तुझे कोई दूसरा नहीं दे सकता, वह तो तुझे अपने ही अन्दर से प्राप्त होगा । वह अक्षय सुख-वह तेरा लक्ष्य-तुझ में ही भरा हुआ है । तू जिसे ढूँढ रहा है वह स्वयं तू ही है। जिस प्रकार कस्तूरी-मृग अपनी ही नाभि में रही हुई कस्तूरी के सौरभ से आकृष्ट होकर उसे पाने के लिए वन में चौकड़ियाँ भरता हुश्रा भागता है, छलागें मारता हुआ दौड़ता है और सारे वन को पैरों तले रौंद डालता है लेकिन उसे उस सौरभ का उद्गम स्थान नहीं प्राप्त होता । वह अनजान मृग यह नहीं जानता कि जिस सौरभ के लिए मैं इतना परिश्रम उठा रहा हूँ, इतनी भाग-दौड़ कर रहा हूँ वह तो मुझ में ही है । मैं ही इस सुगन्ध का उद्गम हूँ। मेरी ही सुगंध से सारा वनखंड सुगन्धित है, मैं उसे लेने के लिए बाहर ढूँढता हूँ तो कैसे प्राप्त हो सकती है ? जो चीज अन्दर है वह बाहर से कैसे प्राप्त हो सकती है ? भोला मृग अपनी आन्तरिक वस्तु को बाहर ढूँढता है, इसके लिए घोर प्रयत्न करता है व घोर कष्ट उठाता है लेकिन वह वस्तु उसे कैसे प्राप्त हो सकती है ? ठीक उसी तरह यह आत्मारूपी मृग अपने सुखमय स्वरूप को भूल गया है और बाहर से सुख पाने की आशा रखता है। वह सुख को बाहर ढूँढता है लेकिन जो आत्मा की वस्तु है वह बाहर कैसे मिल सकती है। वह प्राणी अनन्तता चाहता है लेकिन जहाँ-श्रात्मा में अनन्तता है वहाँ उसे नहीं ढूंढना चाहता लेकिन अन्त वाले नश्वर बाह्य पदार्थों में अनन्तता ढूँढता है। वहाँ वह अनन्तता कैसे प्राप्त हो सकती है ? प्राणी अपने अनन्त एवं सुखमय स्वरूप को भूलकर ज्यों ज्यों बाह्य पदार्थों की शरण लेता है त्यों त्यों वह वासना में फँसता जाता है और अपने स्वरूप से दूर होता जाता है । नश्वर पदार्थों में अनन्ता और दुखरूप विषयों में सुख ढूँढना यही अज्ञान है। इसीलिए सूत्रकार ने आत्म-शक्ति का भान कराने के लिए साधक से यह कहा है कि तू ही तेरा मित्र है । त् बाहर के मित्रों की इच्छा न कर। अपनी शक्ति का अपने में ही दर्शन कर । तू आत्म-दर्शन कर । तुझे उसमें अनन्त शक्ति का सागर लहराता हुआ मिलेगा। सूत्रकार ने कहा है कि प्रात्मा ही अपना मित्र है। जो उपकारी हो उसे मित्र समझना चाहिए। पारमार्थिक, ऐकान्तिक और प्रात्यन्तिक उपकार करने वाला आत्मा के सिवाय अन्य कौन हो सकता है ? जो सांसारिक साहाय्य देकर उपकार करते हैं वे द्रव्यमित्र कहलाते हैं । बाह्य मित्रों का उपकार पारमार्थिक नहीं हो सकता क्योंकि उससे परमपुरुषार्थ की सिद्धि नहीं होती है । जो परमपुरुषार्थ रूप साध्य में उपकारी होता है वही उपकार पारमार्थिक है । मित्रों का किया हुअा उपकार ऐकान्तिक नहीं होता क्योंकि उम उपकार से अपकार भी हो सकता है। इसी तरह बाह्य मित्रों का उपकार आत्यन्तिक नहीं हो सकता क्योंकि वह उपकार सदा के लिए टिक नहीं सकता अतः पारमार्थिक, ऐकान्तिक और आत्यन्तिक उपकार करने वाला मित्र अपना आत्मा ही है। ___ अात्मा ही अपना मित्र है इस कथन का मतलब यह है कि आत्मा की शुभ परिणति ही मित्र का काम करती है और आत्मा की परिणति जब अशुभ होती है तब वही वैरी का काम करती है । शुभ परिणति शुभकमों के बन्धन व उनके उदय से सुखरूप होने से मित्र है और अशुभ परिणति अशुभ कर्मों For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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