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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आरम्भनिवृत्ति में मुनित्व । २ लोक-विजय अध्ययन www.kobatirth.org [ फ] अन्यतीर्थिकस्वरूप, वायुसमारम्भज्ञाता मुनि, समारम्भ में कर्मबन्धन, Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १ प्रथम उद्देशक : और मूलस्थान की एकता, इन्द्रियों की शिथिलता, वृद्धत्व में अवगणना, प्रमाद, संसारासक्ति, धन की अशरणता, स्वकृत कर्म-फल, atar में धर्मोद्यम | २ द्वितीय उद्देशक: ८६ से २०१ ८६ १०१ - अरतिनिवारण, अनाज्ञावर्त्ती की उभयभ्रष्टता, संसार-विमुक्त-स्वरूप अनगारस्वरूप, अज्ञानी का स्वरूप, ज्ञाता का कर्त्तव्य । १०२ ३ तृतीय उद्देशक: ११३ गोत्राभिमान परिहार, कर्म-फल का दृष्टा, मोक्षचारी का स्वरूप, मृत्यु की नियमितता, जीवन-प्रियता, धनसंग्रह का परिणाम, विज्ञ को अनुपदेश, अज्ञानी का संसार भ्रमण | ४ चतुर्थ उद्देशक: १३० भोग में रोग, धन का विभाग, आशाओं का त्याग, स्त्री के प्रति आसक्ति का परिणाम भोगों की प्राप्ति और अप्राप्ति में दुःख, अनासक्त-प्रशंसा । ५ पञ्चम उद्देशक: १४७ For Private And Personal भिक्षा की गवेषणा, श्रम गन्ध परिज्ञान, क्रयादिनिषेध, कालादिज्ञान, निर्ममत्व, आहारविधि, धर्मोपकरण का अपरिग्रहत्व, काम और कामियों का स्वरूप, शरीर की अशुचि, वान्ताशननिषेध, संकल्पों का त्याग, बाल-संग का निषेध | ६ षष्ठ उद्देशक: पापकर्म का निषेध, कर्मोपशान्ति, ममत्वबुद्धि का त्याग, वीरलक्षण, विषयों में अनासक्ति, रूक्षसेवी सम्यक्त्वदर्शी, लोकसंयोग का त्याग, दुःख-परिज्ञा, पुण्य- तुच्छ को समभावपूर्वक उपदेश, उपदेश-प्रणाली, कुशलानुकरण, बाल का संसार भ्रमण । १७६ ३ शीतोष्णीय अध्ययन १ प्रथम उद्देशक: जागरण, शब्दादि विषयों का ज्ञाता-परिहर्त्ता ही संयमी है, विरक्त मुनि का स्वरूप, रति-अरति को सहन करने वाला निर्मन्थ, भावजागरण, उपाधि ही कर्म है, राग-द्वेषविजेता मुनि | २ द्वितीय उद्देशक: २१६ सम्यक्त्वदर्शी का लक्षण, कामसंग संसार का मूल है, हास्य- कीड़ा का ११२ १२६ १४६ १७५ २०१ २०२ से २०० २०२ २१५ २३६.
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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