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[ श्रधाराङ्ग-सूत्रम्
. प्रश्न करें तो उन्हें अपने बादशाह का यह अंतिम संदेश सुना देना । आखिर सिकन्दर संसार से कूच कर ● गया और जब उसका जनाजा निकाला गया तो उसकी इच्छानुसार उसके दोनों हाथ कफन से बाहर "खुले रखे गये। जब जनाजा निकला तो शाही रिवाज के विरुद्ध दोनों हाथों को खुले देखकर लोगों को बड़ा अचरज हुआ और वे परस्पर इसकी चर्चा करने लगे। तब एक ऊँचे स्थान पर खड़े होकर चोबदार ने कहा कि हे मित्रो ! अपने सम्राट् के अन्तिम संदेश को सुन लीजिये । सम्राट् ने यह कहा कि मैंने जीते जी तो आप लोगों को अनेक प्रकार की शिक्षाएँ दीं लेकिन एक महत्त्व पूर्ण शिक्षा बाकी रह गई सो ब • मृत्यु के बाद मेरे खुले हुए दोनों हाथ तुम्हें शिक्षा देते हैं कि मैंने सारी उम्र भर लड़ाईयाँ लड़ीं। अपना सारा समय और पुरुषार्थ संसार पर विजय पाने के पीछे व्यय किया । मैंने अपने पराक्रम से दुनियाँ के एक विशाल भूखंड पर अपना साम्राज्य स्थापित किया और अथाह धनराशि एकत्रित की लेकिन आप सब यह देख लें कि मेरे साथ इनमें से कोई चीज नहीं आ रही है। मेरे दोनों हाथ खाली है। मेरा किया हुआ सब व्यर्थ हुआ । यही शिक्षा शेष रह गयी थी सो यह शिक्षा मेरे इन खुले हाथों से प्रहरण करो । तात्पर्य यह है कि विशाल साम्राज्य या विशाल धन सम्पत्ति में सुख होता तो सिकन्दर यह शिक्षा नहीं दे जाता ।
धनवैभव में और साम्राज्य में सुख मानना उस मृगतृष्णा के समान है जिसके पीछे ज्यों-ज्यों दौड़ा जाता है त्यों-त्यों निराश होना पड़ता है और अन्त में अपना स्वत्व भी गुमा देना पड़ता है । धन की मृगतृष्णा में फँसकर प्राणी अपना चैतन्य खो देता है और आत्मभान भूलकर मुग्ध ( मूर्छित) हो जाता है। इस मोहक भूलभुलैया में फँसकर प्रारणी इधर उधर चक्कर काटता रहता है। उसका मन इस भूलभुलैया में पड़कर तत्र घूमता रहता है। वह नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों में फँसा रहता है। ये संकल्प'वकल्प ही इस बात की साक्षी देते हैं कि कामभोग मृगतृष्णा है ।
संसार सुखों का अभिलाषी प्राणी आशाओं के धागे से बँधकर आकाश में पतन की भांति संकल्प-विकल्पों में उड़ा करता है । वह कभी विशाल साम्राज्य स्थापित करने के स्वप्न देखता है, कभी व्यापार से अपरिमित धनराशि उपार्जन करके धनकुबेर कहाना चाहता है, कभी मनुष्यों के परिश्रम को उद्योगों को नष्ट करके बड़े २ कारखाने खोलकर पूँजीपति बनना चाहता है। संकल्पों का न ओर हैन छोर । वह अपने समस्त संकल्पों को पूरा करने का निष्फल प्रयास करता है। एक संकल्प दूसरे अनेक संकल्पों की हारमाला को जन्म देकर नष्ट होता है ऐसी हालत में संकल्पों को पूरा करना मानो चालनी में समुद्र भरना है | चालनी को जल से भरना या समुद्र को पाटना जितना कठिन है उतना ही संकल्पों की पूर्ति होना कठिन है । तदपि मृगतृष्णा से मूर्छित बना हुआ प्राणी संभव असंभव का विचार किये बिना चालनी को जल से भर देने की चेष्टा करता है । सूत्रकार ने सूत्र में " केयर" शब्द दिया है। चालनी द्रव्य- केतन है और लोभेच्छा भाव- केतन है । द्रव्य- केतन और भाव- केतन दोनों की पूर्ति असंभव है । लोभ का कहीं अन्त नहीं है । यह आकाश के समान अनन्त है । इसके सम्बन्ध में कपिल की दो माशा सुवर्ण माँगने की अभिलाषा का अन्त करोड़ स्वर्ण मोहरों से भी नहीं हुआ, यह वृत्तान्त प्रसिद्ध ही है ।
लोभ के आकर्षण से आकृष्ट होकर प्रारणी क्या क्या कर्म कर डालता है इसका स्वयं सूत्रकार वर्णन करते हैं । लोभवृत्ति से ही हिंसा का जन्म होता है । इसी वृत्ति से प्राणी अन्य प्राणी वध करता है, छल-कपट से गले पर छुरी चलाता है, उसे परेशान करता है और उसको अपना गुलाम बनाकर रखता है । इसी वृत्ति से व्यक्ति का ही नहीं वरन् देश का नाश करता है, देश को परेशान करता है और देश को • गुलाम बनाता है। इसी वृत्ति के कारण भयंकर से भयंकर महायुद्ध लड़े जाते हैं जिनमें असंख्य मनुष्यों
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