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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन षष्ठ उद्देशक ] [ २०१ उद्देसो पासगस्स नत्थि, बाले पुण निहे कामसमणुन्ने असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव पावटें अणुपरियट्टइ ति बेमि। संस्कृतच्छाया-उपदेशः (उद्देशो वा) पश्यकस्य नास्ति । बालः पुनर्निहः कामसमनुज्ञः प्रशमितदुःखः दुःखी दुःखानामेवावर्त्तमनुपरिवर्त्तते, इति ब्रवीमि । शब्दार्थ-तृतीय उद्देशकवत् भावार्थ-हे प्रिय जम्बू ! जो तत्वज्ञ और परमार्थदृष्टा है उसे उपदेश और विधि-निषेध की आवश्यकता ही नहीं है परन्तु जो तत्वज्ञ नहीं हैं और आत्म-स्वरूप से अज्ञान हैं उन्हीं के लिए यह आवश्यक है क्योंकि वे अभी ऐसी भूमिका पर होते हैं जहां आसक्ति पूर्वक प्राशा, इच्छा और विषयों का सेवन करते रहते हैं इस तरह वे दुखों को किसी तरह कम नहीं करते हुए उल्टे अधिक दुखी होकर शारीरिक और मानसिक दुखों के चक्र में ही परिभ्रमण करते हैं । ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-तृतीयोदेशकवत्। --उपसंहारइस उद्देशक में ममता और ममत्वबुद्धि का त्याग करने का प्रधानतः उपदेश दिया गया है। जब जीवात्मा आत्मस्वरूप को भूलकर पर-पदार्थों में अहंता का आरोप करता है तब ममत्व-बुद्धि का जन्म होता है और ममत्व-बुद्धि से ममता प्रकट होती है । ममत्व-बुद्धि में आत्म-भान भुला दिया जाता है और चैतन्य जड़ के हाथ बेच दिया जाता है। इस प्रकार जड़ पदार्थों की आसक्ति से चैतन्य क्षीण होता है। चैतन्य की क्षीणता से कर्म-बन्धन, कर्म-बन्धन से संसार और संसार से दुख उत्पन्न होता है इसीलिये दुखमुक्त होने के लिए ममत्व-बुद्धि का त्याग करना चाहिए। हिंसक-वृत्ति और लोकसंज्ञा पर विजय प्राप्त कर संयम के मार्ग पर प्रगति करनी चाहिए । अनुभव की प्राप्ति के पश्चात् ही उपदेशक बनकर स्वकल्याण और पर-कल्याण का समन्वय करना चाहिए। कर्म-बन्धन से मुक्त होने का लक्ष्य रखकर तदनुकूल संयम, त्यागादि का आधार लेकर विकास की ओर बढ़ना और विजय प्राप्त करना यही लोक-विजय है । । इति द्वितीयमध्ययनम् LOOOOOOOOODes For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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