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[प्राचाराङ्ग-सूत्रम्
शब्दार्थ-से-वे कुशल साधक । जं च आरभे=जिस संयम के मार्ग पर चले हैं । जं च णारभे-जिस मिथ्यात्वादि मार्ग पर नहीं चले है-(यह जानकर उनके द्वारा आचीर्ण मार्ग पर चले और अनाचीर्ण मार्ग पर न चले । अणारद्धं जो उनके द्वारा चीर्ण नहीं है । च न धारभे वह न करे । छणं छणं हिंसा और हिंसा के कारणों को । लोगसन्नं च और लोकसंज्ञा को । परिन्नाय जानकर । सव्वसो सर्वथा-त्रिकरण त्रियोग से उनका त्याग करे ।
___ भावार्थ-वे कुशल साधक जिस मार्ग पर चले हैं उसपर प्रत्येक को चलना चाहिए और जिस मार्ग पर वे नहीं गये हैं उसपर प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए । हिंसा और हिंसा के कारणों को तथा लोकसंज्ञा को जानकर दोनों का सर्वथा ( त्रिकरण और तीन योग से ) त्याग करना चाहिए ।
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में जिन महापुरुषों ने ध्येय की सिद्धि कर ली है उनका पदानुसरण करने का उपदेश दिया गया है। हमारे सामने उन महापुरुषों का आदर्श जीवन आकाशदीप के समान मार्गदर्शक है । उनका अनुभव हमारे लिए अत्यन्त उपकारी है। अगर हम भी उसी लक्ष्य पर पहुंचना चाहते हैं तो हमारे लिए भी यही मार्ग है कि वे जिन मार्ग पर चलकर अपने साध्य पर पहुँचे हैं उसे ही हम भी अपनावें। यह मार्ग उनका अनुभूत है अतः उनका उपदिष्ट मार्ग अवश्य हमें हमारे साध्य तक पहुँचावेगा । उन कशल साधकों ने संयम के मार्ग पर प्रवृत्ति करके साध्य पाया है अतः हमें में पर चलना चाहिए । वे साधक विषय-कषाय के मायालु मार्ग से दूर रहे उसी तरह हमें भी उससे दूर रहना चाहिए। उन्होंने जिसका व्यवहार किया है वह हमारे लिए भी व्यवहार करने योग्य है और उन्होंने जिसका परिहार किया है वह हमें भी छोड़ना चाहिए।
उन साधकों ने हिंसा और हिंसा के कारणों को तथा विषय, कषाय, कीर्ति श्रादि लोक-संज्ञाओं का त्याग किया तब वे अपने साध्य पर पहुँचे। इसी तरह प्रत्येक को हिंसा और लोकसंज्ञा का त्याग करना चाहिए इसीसे साध्यसिद्धि है । हिंसा और लोकसंज्ञा को ज्ञ-परिज्ञा द्वारा जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा द्वारा त्रिकरण त्रियोग से त्यागना चाहिए ताकि हम उन आदर्श महापुरुषों के प्राचीर्ण मार्ग पर
चलकर उनका पदानसरण करके अपने चरम साध्य को प्राप्त कर सके।
यहाँ महापुरुषों को पदानुसरण करने का कहा गया है। यह हमारे लिए हितकर है क्योंकि उन्होंने स्वयं अनुभव करने के पश्चात् हमें सन्मार्ग दिखाया है। यहाँ यह बात ध्यान रखने योग्य है कि साधारण जनता की अंध-अनुकरण करने की प्रवृत्ति होती है। बहुत से लोग किसी अमुक काल की आवश्यकता को ध्यान में रखकर या तात्कालीन परिस्थिति को देखकर बताये हुए किसी मार्ग या साधन-विशेष को त्रिकालाबाधित समझ कर हमेशा के लिए गतानुगतिक उनका अनुसरण करते रहते हैं। साधन कभी त्रिकालाबाधित नहीं होते । भिन्न भिन्न देश-काल की स्थिति में भिन्न २ मार्ग और साधन प्ररूपित किये जाते हैं परन्तु कालान्तर में उनका उद्देश्य भुला दिये जाने से वे रूढि रूप रह जाते हैं । अज्ञानी लोग सच्चे ज्ञान के अभाव से उसी रूढि को पकड़े रहते हैं और उसी को सत्य समझते हैं । यहाँ शास्त्रकार फरमाते हैं कि लोकसंज्ञा-लोकरूढि-यह विकास का मार्ग नहीं है। सर्वज्ञ प्रभु ने साक्षात् अनुभव करके सन्मार्ग का मिदर्शन किया है अतः लोकरूढि को त्याग कर उसी मार्ग पर प्रवृत्ति करनी चाहिए । वीतराग का मार्ग अनुभूत है अतः सच्चा है इसलिए उसका पदानुसरण करने से अवश्य साध्यसिद्धि हो सकती है।
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