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द्वितीय अध्ययन षष्ठ उद्देशक ]
[१८७
वाली दुर्गन्ध, अमनोज्ञ स्वाद और अनिष्ट स्पर्श भी तुम्हें विचलित करने के लिए उपस्थित होवेंगे परन्तु हे साधको ! तुम पर्वत के समान अडोल रहना । मोहक आकर्षण और अमनोज्ञ विषयों में रति-अरति न कर बैठना अन्यथा ऐसे गिरोगे कि कहीं पता ही न लगेगा ! कहीं के न रहोगे ! न दीन के न दुनियाँ के । कहा है:
सद्देसु अ भद्दयपावएसु सोयविसयमुवगएसु ।
तुटेण व रूद्वेण व समणेण सया न होअव्वं ।। अर्थात्-कर्ण-प्रदेश में आये हुए मनोज्ञ या अमनोज्ञ शब्दों में साधुओं को राग या द्वेष नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार मनोज्ञ या अमनोज्ञ रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। ऐसे प्रसंग के उपस्थित होने पर राग-द्वेष रहित होकर उसे पुद्गलों का तथारूप परिणमन जान कर समभाव से सहन करना चाहिए।
मनोज्ञ शब्दादि विषयों को सन्मुख उपस्थित जानकर भी उनमें रागभाव का स्थापन नहीं करना चाहिए वरन् इस असंयमित जीवन के आमोद-प्रमोदों को तुच्छ जानकर उनसे घृणा करनी चाहिए । इस जीवन के आमोद-प्रमोद अनेक भवों के विषादों और दुखों को साथ लेकर आते हैं। अतः क्षणिक और तुच्छ सुख के लिए सैकड़ों भवों में रुलाने वाले आमोद-प्रमोदों के सेवन से क्या लाभ ? ये प्राप्त-साधन भी छाया के समान हैं । यह छाया सदा एकसी नहीं रहती अतः वैभव में व विलासों में अभिमान करने का या वैभव के अभाव में दुखी होने का कोई कारण नहीं क्योंकि हस्तताडित गेंद के समान मनुष्यों का उत्थान और पतन होता ही रहता है। जिस प्रकार सनत्कुमार चक्रवर्ती ने अपने रूप को तुच्छ समझ कर परमार्थ को प्राप्त किया इसी प्रकार संसार के जुगुप्सित कामभोगों से घृणा करनी चाहिए और निर्वेद प्राप्त कर परमार्थदृष्टा बनना चाहिए।
इस प्रकार शब्दादि विषयों से निर्विग्न होकर जो मुनि चारित्र का निर्मल रूप से आराधन करता है वह कर्मरूपी शरीर को आत्मा से पृथक् कर देता है अथवा औदारिक आदि शरीर को धुन देता है । उस पर ममत्व-भाव नहीं रखता है वह देह-भाव से परे हो जाता है।
जो सत्पुरुषार्थी, तत्त्वदर्शी तथा समदर्शी प्राणी देहभाव परे हो जाते हैं वे लूखे-सूखे आहार से ही निर्वाह करते हैं। नीरस अथवा रुक्ष भोजन भी वे द्वेषरहित (धूमदोषहीन) और रागरहित (अङ्गार दोष रहित ) होकर सेवन करते हैं। वे इस शरीर को आत्म-साधना का उपयोगी साधन समझ कर सादा श्राहारादि देकर इसका पालन करते हैं । जो सम्यक्त्वदर्शी हैं वे आत्मा और शरीर को भिन्न जानते हुए इसे अपना स्वरूप नहीं समझते । शरीर से सम्बद्ध होते हुए भी "मैं कुछ और हूँ मेरा शरीर कुछ और है" ऐसा प्रति क्षण उन्हें ध्यान रहता है। यही कारण है कि वे देहभाव से परे होते हैं। अतः उन्हें न स्वादिष्ट पदार्थों की चाह है, न सुन्दर वस्त्रों की तमन्ना है। वे तो अपनी आवश्यकताओं को दिन-प्रतिदिन हल्की करते जाते हैं और द्रव्य तथा भावकर्म के भार से मुक्त होकर हल्के बनते हैं। वे लूखा-सूखा आहार करते है फिर भी जो बहुमूल्य पदार्थों का उपभोग करते हैं उनकी अपेक्षा बहुत ही अधिक आत्म-संतोष का अनुभव करते हैं।
ऐसे सम्यक्त्वदर्शी और समदर्शी प्राणी देहभाव से परे रहने के कारण संसार-समुद्र को तैर जाते हैं अथवा क्रियमाण को कृत मानने की अपेक्षा से वे संसार-समुद्र से पार हो चुके हैं । वे बाह्य और श्राभ्यन्तर
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