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[ श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
जिन कार्यों के करने से रागादि दोषों का निरोध होता है और पूर्व संचित कर्मों का क्षय होता है वे सभी अनुष्ठान मोक्ष के उपाय हैं । जिस प्रकार ज्वरादि रोगों में उचित औषधि लेने और अपथ्य का त्याग करने से रोगों की शान्ति होती है इसी प्रकार उत्सर्ग में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग में अपवाद का श्राचरण करने से रागादि दोषों का निरुन्धन और पूर्वसंचित कर्मों का क्षय होता है। अतः उत्सर्ग के स्थान में उत्सर्ग और अपवाद के स्थान में अपवाद का सेवन करना चाहिए।
दूसरी बात यह है कि एक औषधि किसी विशेष रोग में हितकर होती है तो ग्राह्य है और वही औषधि किसी रोग में हानिकर होने से अग्राह्य भी हो जाती है उसी प्रकार साधु के अनुष्ठानों (क्रियाओं) में भी समझना चाहिए । अर्थात् समर्थ साधु के लिए कोई बात कल्पनीय है तो वही बात असमर्थ के लिए अकल्पनीय है । वैद्यक शास्त्र का मन्तव्य है कि:
उत्पद्यते हि साऽवस्था देशकालामयान् प्रति ।
यस्यामकार्य कार्य स्यात् कर्मकार्य च वर्जयेत् ॥ अर्थात्-भिन्न-भिन्न काल, क्षेत्र और भिन्न २ रोगों के कारण ऐसी अवस्था प्राप्त होती है जिसमें अकार्य तो करने पड़ते हैं और कार्यों को छोड़ना पड़ता है । तात्पर्य यह है कि कुशलवैद्य काल, क्षेत्र और रोग के प्रकार को देखकर औषधि और पथ्य का विधान करता है उसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को देखकर और विचार कर साधुओं को अनुष्ठान करना चाहिए।
आशय यह है कि राग-द्वेष रहित होकर ऐसे ऐसे अनुष्ठान करने चाहिए जिनसे ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि हो।
वत्थं, पडिग्गह, कम्बलं, पायपुंछणं, उग्गहणं च कडासणं एएसु चेव जाणिजा।
संस्कृतच्छाया-वस्त्रं, पतगृहं, कम्बल, पादपुंछनकम्, अवग्रहं, कटासनमेतेषु चैव जानीयात् ।
शब्दार्थ-वत्थं वस्त्र । पडिग्गहं पात्र । कम्बलं कम्बल । पायपुञ्छणं रजोहरण । । उग्गहणं-स्थानक । कडासणं शय्या और आसन की। एएसु-इन गृहस्थों के पास से । चेव ही। जाणिजा=विवेक पूर्वक याचना करे ।
भावार्थ-अपने लिए सन्निधि और सन्निचय करने वाले गृहस्थों से ही साधु संयम के लिए उपयोगी वस्त्र, पात्र, कम्बल, स्थान, शय्या और आसन की विवेक-पूर्वक याचना करे।
विवेचन-सर्व प्रथम आवश्यक आहार का वर्णन कर चुकने पर सूत्रकार अब अन्य उपयोगी वस्तुओं के लिए फरमाते हैं कि वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, स्थानक, शय्या और आसन ये भी गृहस्थों से ही विवेकपूर्वक प्राप्त करने चाहिए। अवग्रह शब्द का अर्थ है-आज्ञा लेकर उस स्थान में रहना।
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