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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsur Gyanmandir द्वितीय अध्ययन पंचमोद्देशक ] [ १५७ को नहीं जानते हुए केवल स्वार्थ के लिए मासक्षपणादि करते हैं और उसके फल में निदान करते हैं परन्तु यह निदान समस्त क्रिया के फल को नष्ट कर देता है। इससे आत्मिक लाभ नहीं होताहै अतः विवेकसम्पन्न आत्महिताभिलाषी मुमुक्षु का कर्त्तव्य है कि वह किसी प्रकार का निदान न करे। निदान करना चिन्तामणि रत्न के समान धर्मक्रिया को कांच के टुकड़े के समान सांसारिक सुख के मोल बेच देना है। सच्चा साधु कदापि निदान नहीं करता है । अथवा आहारादि के लिए गृहस्थों के घरों में प्रविष्ट होने पर यह प्रतिज्ञा न करे कि यह चीज़ तो मैं ही लूँगा । मुझे ऐसा ही आहार मिलना चाहिए ऐसी प्रतिज्ञा न करें। शंका होती है कि शास्त्रों में विविध अभिग्रहों का प्रतिपादन किया गया है। वे भी प्रतिज्ञा रूप ही हैं इससे पूर्वापर विरोध आता है ? इसका समाधान यह है कि ऐसी प्रतिज्ञा नहीं करनी चाहिए जो राग या द्वेष मूलक हो । राग-द्वेष वाली प्रतिज्ञा करने का निषेध किया गया है। अभिग्रहों में राग-द्वेष नहीं है अतः इसमें कोई आपत्ति नहीं है। अथवा अप्रतिज्ञ शब्द का ऐसा भी अर्थ होता है कि जिनेन्द्र प्रभु का प्रवचन स्याद्वादमय है अतः कदापि एक पक्षीय निश्चयात्मक प्रतिज्ञा नहीं करनी चाहिए । “यह ऐसा ही है" ऐसा कहना ठीक नहीं है। जैसा कि मैथुन विषय को छोड़कर किसी भी स्थान पर कोई भी नियम वाली एकान्त रूप प्रतिज्ञा नहीं करनी चाहिए क्योंकि कहा है कि: न य किंचि अणुराणाय, पडिसिद्ध वावि जिणवरिंदेहि । मोक्तं मेहुणभावं न तं विणा रागदोसेहिं ॥ अर्थात्-जिनेश्वर देव ने साधुओं के लिए एकान्तरूप से न तो किसी कर्तव्य का विधान किया है और न किसी प्रकार का एकान्त निषेध ही किया है। केवल स्त्रीसंग (मैथुन) राग-भाव के बिना नहीं हो सकता अतएव स्त्रीसंग का एकान्त रूप से निषेध किया है। तीर्थकरों की यह आज्ञा निश्चय और व्यवहार उभयनयाश्रित होने से सम्यग् रूप से अाराधन करने योग्य है। इसका आशय यह है कि जिन जिन कार्यों से ज्ञान-दर्शन और चारित्र की वृद्धि हो ऐसे कार्य करने चाहिए । सत्य और सद्भाव का अवलम्बन लेकर कार्याकार्य का विचार करना चाहिए। कपट का आश्रय लेकर कोई क्रिया नहीं करनी चाहिए । वस्तुतः ज्ञानदर्शन चारित्ररूप तात्विक ज्ञानके आलम्बन से ही मोक्ष प्राप्त होता है । बाह्य अनुष्ठान (क्रिया) अनैकान्तिक और अनात्यन्तिक हैं। अर्थात् बाह्य क्रियाएँ कदापि एकरूप और सदा हितकारी नहीं हो सकतीं। क्योंकि ऐसे प्रसंग उपस्थित होते हैं जिनमें कार्य, अकार्य हो जाते हैं और अकार्य, कार्य हो जाते हैं। इसलिए जिस जिस तरह से संयम-धर्म की वृद्धि हो वैसे वैसे कार्य करने चाहिए। कपट पूर्वक शक्ति का गोपन नहीं करना चाहिए । बृहद्भाष्यकार ने कहा है किः कजं नाणादीयं सचं पुण होइ संजमो णियमा । जह जह सोहेइ चरणं तह तह कायव्वं होइ ॥ अर्थात-ज्ञानादि कार्य सत्य हैं और जो सत्य है वह संयम है । अतएव जैसे जैसे चारित्र निर्मल रहे वैसे वैसे कार्य करने चाहिए । और भी कहा है दोसा जेण निरुज्झांत जेण जिज्झति पुव्वकम्माई । सो सो मुक्खोवाओ रोगावत्थासु समणं व ॥ For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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