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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १२२ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् शब्दार्थ — कालस्य मृत्यु का । गागमो अनागम । नत्थि नहीं हैं । सव्वे पाणा= सभी प्राणियों को ! पियाउया अपनी आयु प्रिय है। सुहसाया सभी सुख के इच्छुक हैं। दुक्ख पडिला = दुःख सभी को प्रतिकूल - अनिष्ट है । अप्पियवहा=मरण सभी को प्रिय है । पियजीविणो जीना सभी को प्रिय है । जीविउकामा प्रत्येक प्राणी जीवन की अभिलाषा रखता सव्वेसि = सभी को । जीत्रियं पियं= जिन्दा रहना प्रिय लगता है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भावार्थ-मृत्यु के लिए कोई अकाल नहीं है । सभी प्राणी दीर्घ आयुष्य और सुख चाहते हैं, दुःख और मरण सभी को प्रतिकूल लगता है । जीवन सभी को प्रिय लगता है। सभी जीना चाहते हैं । विवेचन - मृत्यु का कोई भरोसा नहीं है । न जाने यह कब आ खड़ी हो ? सोपक्रम आयुष्यवाले प्राणियों की ऐसी कोई अवस्था नहीं है जिसमें मृत्यु न आवे। जिस प्रकार लाख-गोला अग्नि में पड़ने पर विलीन हो जाता है उसी तरह कर्म रूपी अग्नि में पड़ा हुआ यह जीव कब मृत्यु का ग्रास बन जाय ! मृत्यु यह विचार नहीं करती है कि यह बालक है या युवा है या वृद्ध है, यह कठिन है या कोमल है, पण्डित है या मूर्ख है, धीर है या अधीर है, मानी है या दीन है, गुणी है या दोषी है, यति है या यति है, प्रकट प्रकाश में है या अन्धकार में, दिन है या रात्रि है, सन्ध्या है या प्रभात है ? बिना किसी प्रकार के विचार के मृत्यु किसी भी अनिश्चित समय पर आ सकती है - जो जन्मा है सो अवश्य मरेगा यही समझकर सदा धर्म में दृढ़ होना चाहिए। कहा है: -- गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् । प्रतिपल मरण को सम्भव मानकर धर्माचरण में सदा अप्रमत्त और उद्यत रहना चाहिए । अप्रमत्त होकर हिंसादि धर्मों का पालन करना चाहिए, क्योंकि सभी प्राणी दीर्घ आयुष्य चाहते हैं। “पाणा" शब्द से प्राणवन्त अर्थ समझना चाहिए क्योंकि प्राण और प्रारणी में अभेदोपचार से एकता है । शंका- आपने सभी प्राणियों को प्रिय आयुष्य वाले कहे हैं परन्तु सिद्धों से इसमें दोष आता है अर्थात् सिद्ध प्राणी तो हैं परन्तु प्रिय आयुष्य वाले नहीं हैं ? समाधान - ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि यहाँ सामान्य जीव शब्द न देकर 'पाणा' शब्द दिया गया है । वह उपचरित है और वह संसारवर्ती प्राणियों के लिए प्रयुक्त किया गया है अतः सिद्धों में दोष नहीं आता है । दीर्घायु के साथ ही सभी प्राणी सुखसाता के चाहने वाले हैं, दुःख किसी को प्रिय नहीं है, सभी को प्रिय है । मरणति प्रिय है । मरण शय्या पर पड़ा हुआ प्राणी भी जीने की आशा रखता है । भयंकर से भयंकर दुःखों में भी प्राणी जीवित रहना चाहता है। यह जीवन सभी को अत्यन्त बल्लभ है इसीलिए पुनः पुनः सूत्रकार ने इसका प्रियत्व कहा है। अपने को अपना जीवन जैसा बल्लभ है वैसा ही दूसरों को उनका जीवन वल्लभ है, यह जानकर हिंसा से निवृत्त होना चाहिए। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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