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________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वितीय अध्ययन तृतीयोद्देशक ] [१२१ . शुभ कर्मों का उपार्जन करके जो मोक्ष के अभिलाषी हैं उनका स्वरूप बताते हैं: इणमेव नावकखंति जे जणा धुवचारिणो, जाइमरणं परिन्नाय चरे संकमणे दढे। संस्कृतच्छाया--इदमेव नावकाङ्क्षन्ति ये जनाः ध्रुवचारिणः जातिमरणं परिज्ञाय चरेत् संक्रमण दृढ़ः । शब्दार्थ-जे जणा धुवचारिणो जो प्राणी शाश्वत सुख के इच्छुक हैं। इणमेव= इस असंयमी जीवन को । नावकखंति अभिलाषा नहीं करते हैं । जाइमरणं-जन्म-मरण के स्वरूप को। परिनाय भलीभाँति जानकर । संकमणे-चारित्र में । दढे दृढ़ होकर । चरे–विचरें। भावार्थ-जो प्राणी सच्चे और शाश्वत सुख के अभिलाषी हैं वे इस प्रकार के स्वच्छंदी और असंयमित जीवन की इच्छा नहीं करते हैं । वे तो जन्म मरण के मूल को भलीभांति समझ कर उससे मुक्त होने के लिए संयम पालन में शका नहीं करते हुए दृढ़ता से उसका पालन करते हैं। विवेचन-सूत्रकार ने यह फरमाया है कि जो प्राणी ध्रवचारी होते हैं अर्थात् ध्रवरूप मोक्ष, और उसके कारण ज्ञान दर्शन और चारित्र में जो रमण करने वाले हैं-वे प्राणी स्वच्छंद और असंयमित जीवन की अभिलाषा नहीं करते हैं । वे पर वस्तुओं में ममत्व नहीं करते हैं और आत्मरूप में सच्चे सुख का साक्षात्कार करते हैं। वे जन्म और मरण का मूल ढूंढ कर उसे समूल नष्ट करने के लिए दृढ़ता से संयम का पालन करते हैं। वे इस नश्वर और अनित्य शरीर में भी मोह नहीं रखते हुए इसके द्वारा अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं । आत्मिक सुखों के अन्वेषण के लिए वे शारीरिक कष्टों को सुख रूप मान कर सहन करते हैं और परलोक आदि की शंका नहीं करते हुए दृढ़ता से संयम का पालन करते हैं। परिषह और उपसर्गों से उनका संयम चल-विचल नहीं हो सकता। वे तपस्वी संयम की साधना करते हुए उपशम प्रशम आदि के द्वारा जिस सुख का, जिस चिर शान्ति का और द्वन्द्वरहितता से जो अनाबाध अवस्था का अनुभव करते हैं उन्हें परलोक के सुखों की क्या अभिलाषा हो सकती है ? उन तपस्वी महापुरुषों के प्रभाव से इस लोक में भी बड़े बड़े सम्राट् भक्ति भाव से नम्र बने हुए उन मुनियों के चरणों में नतमस्तक हो जाते हैं। अतः सर्वथा हितकारी इस संयम के पालन में कदापि शिथिलता न लानी चाहिए। यह कदापि विचार नहीं करना चाहिए कि थोड़े दिनों बाद अथवा वृद्धावस्था में धर्म का आचरण करूँगा क्योंकि मृत्यु का निश्चय नहीं है कि वह कब आवेगी मृत्यु के आने के लिए कोई अकाल नहीं है-यह सूत्रकार सूत्र द्वारा फरमाते हैं : नत्थि कालस्स णागमो । सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुक्खपडिकूला अप्पियवहा, पियजीविणो जीविउकामा। सव्वेसिं जीवियं पियं । - संस्कृतच्छाया-नास्ति कालस्यानागमः । सर्वे प्राणिनः प्रियायुषः सुखास्वादाः दुःखप्रतिकूला: अप्रियवधाः प्रियजीविनः जीवितुकामाः । सर्वेषाम् जीवितम् प्रियम् । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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