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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ११४ ] [आचाराग-सूत्रम् विवेचन-अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुए जीवात्मा ने अनेकों बार उच्चगोत्र में जन्म लिया है और अनेकों ही बार नीचगोत्र में जन्म लिया है । यह संसार एक प्रकार का भूला है। जैसे झूले का जो भाग इस क्षण में ऊँचा है वही भाग दूसरे क्षण में सबसे नीचा हो जाता है तथा जो इस क्षण में सबसे नोचा है वह दूसरे ही क्षण में सबसे ऊँचा हो जाता है। जिस प्रकार झूले में उच्च-नीच अवस्थाएँ होती रहती हैं ठीक उसी तरह संसार रूपी झूले में झूलता हुआ यह प्राणी अनेकों बार उच्चगोत्र में उत्पन्न हुआ है और अनेकों ही बार नीचगोत्र में भी उत्पन्न हुआ है। बन्ध, उदय और सत्ता की अपेक्षा से उच्च-नीच गोत्र के सात भंग बनते हैं । वे इस प्रकारः (१) नीचगोत्र का बन्ध-नीचगोत्र का उदय और नीचगोत्र की सत्ता। (२) नीचगोत्र का बन्ध-नीचगोत्र का उदय और उभय की सत्ता। (३) नीचगोत्र का बन्ध-उच्चगोत्र का उदय और उभय की सत्ता । (४) उच्चगोत्र का बन्ध-नीचगोत्र का उदय और उभय की सत्ता। (५) उच्चगोत्र का बन्ध-उच्चगोत्र का उदय और उभय की सत्ता । (६) बन्धाभाव-उच्चगोत्र का उदय और उभय की सत्ता । (७) बन्धाभाव-उच्चगोत्र का उदय और उच्च की सत्ता । नीच गोत्र का उदय अनन्तकाल तक तिर्यंचावस्था में रहता है। नामकर्म की १२ प्रकृतियों में से जब आहारक शरीर, श्राहारक संघात, आहारक बन्धन, आहारक अंगोपांग, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रिय शरीर, वैक्रिय संघात, वैक्रिय बन्धन, वैक्रिय अंगोपांग इन बारह कर्म-प्रकृतियों को तथाविध अध्यवसायों से निर्लेप करता है तब तेज और वायुकाय में उत्पन्न होता है अतः तेज और वायु में प्रथम भंग ही पाया जाता है अर्थात् नीचगोत्र का उदय, नीचगोत्र का बन्ध और नीचगोत्र की ही सत्ता रहती है । शेष एकेन्द्रियों में भी प्रथम भंग ही पाया जाता है । त्रस में भी अपर्याप्त अवस्था में प्रथम भंग ही होता है । जब तक उच्चगोत्र का निर्लेप नहीं होता है वहाँ तक दूसरा और चतुर्थ भंग रहता है, अन्य नहीं। क्योंकि तिर्यंच अवस्था में उच्चगोत्र का उदय नहीं है । तात्पर्य यह है कि यह जीव उच्चगोत्र के अभिमान के कारण एकेन्द्रिय में और तिर्यंच अवस्था में क्रमशः अनन्तकाल और अन्नत उत्सर्पिणी अवसर्पिणी तक रहता है। मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी का जब निर्लेप होता है तब उच्चगोत्र का उदय होता है। इस प्रकार नीचगोत्र से कलंकित जीव तिर्यंच में अनन्तकाल तक रहता है और मनुष्य भन में भी नीच स्थानों में उत्पन्न होता है । जब द्वीन्द्रियादि में उत्पन्न होकर प्रथम समय में अथवा पर्याप्ति के बाद में उच्चगोत्र बांधकर मनुष्यभव में अनेक बार उच्चगोत्र प्राप्त करता है तब तीसरे और पंचम भंग में वर्तमान होता है। ( अर्थात् नीचगोत्र का बन्ध, उच्चगोत्र का उदय और उभय की सत्ता यह तृतीय भंग-और उच्चगोत्र का बन्ध, उच्चगोत्र का उदय और उभय की सत्ता यह पंचम भंग है। ) जब वन्ध का अभाव हो जाता है तब छठा और सातवां भंग बनता है । सातवां भंग शैलेशी अवस्था में द्विचरम समय में नीचगोत्र के क्षय हो जाने से उच्चगोत्र का उदय और सत्ता रहती है। इस प्रकार उच्च-नीच गोत्र में यह प्राणी अनेक बार उत्पन्न हुआ है और होता है अतः उच्चगोत्र का अभिमान नहीं करना चाहिए और नीचगोत्र से दीनता न लानी चाहिए। क्योंकि उच्चगोत्र के अनुभाव बन्ध के अध्यवसाय स्थान के जितने अंश हैं उतने ही अंश नीचगोत्र के भी हैं । तात्पर्य यह है कि उच्चगोत्रकार्माणवर्गणा के जितने अंश हैं उतने ही नीचगोत्र के भी हैं। प्रत्येक प्राणी ने बराबर उन अंशों का संस्पर्श किया है। इसलिए उच्चगोत्र से किसी प्रकार की विशेषता और नीचगोत्र से किसी प्रकार की हीनता नहीं होनी चाहिए। भवभ्रमण की दृष्टि से दोनों समान हैं। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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