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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १०६ ] [प्राचाराङ्ग-सूत्रम् कागज के फूलों में सुगन्ध कहाँ से आ सकती हैं ? नकली घोड़े कब तक दौड़ सकते हैं ? गधा सिंह की खाल कब तक ओढ़कर छिप सकता है ? परीषह और उपसर्ग नकली और सच्चे संयमी की कसौटी करने वाले मापयन्त्र हैं। फूल जितना मसला जाता है उतनी ही सुगन्ध देता है, इनु पीले जाने पर ज्यादा रस देता है, इसी प्रकार परीषह उपसर्गों में सच्चे संयमी का चरित्र और भी अधिक दृढ़ होता है-जैसे उपसर्ग के समय अरणक की दृढ़ वृत्ति । जो अज्ञानी मोहान्ध होकर संयम से पतित हो जाते हैं वे कण्डरीक के समान अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं। अपरिग्गहा भविस्सामो समुट्ठाय लद्धे कामे अभिगाहइ, अणाणाए मुणिणो पडिलेहन्ति इत्थ मोहे पुणो पुणो सन्ना नो हव्वाए नो पाराए। संस्कृतच्छाया-अपरिप्रहाः भविष्यामः समुत्थाय लब्धान् कामानाभगाहन्ते । अनाज्ञया मुनयः प्रत्युपेक्षन्ते, अत्र मोहे पुनः पुनः सन्नाः नोऽर्वाचे नो पाराय । शब्दार्थ-अपरिग्गहा परिग्रहरहित । भविस्सामो हम बनेंगे । समुट्ठाय दीक्षा लेकर । लद्ध कामे प्राप्त हुए विषय भोगों को । अभिगाहइ-ग्रहण करता है । अणाणाए-चीतराग की आज्ञा से विपरीत आचरण करके । मुणिणो मुनि वेश को लजाने वाले । पडिलेहन्ति काम भोगों के उपायों की शोध करते हैं । इत्थ मोहे=इस मोह में । पुणो पुणोबारबार । सन्ना आसक्त होकर । नो हव्वाए-न इसपार रहते हैं । नो पाराएन उसपार जा सकते हैं। . भावार्थ-हम अपरिग्रही बनेंगे ऐसे वचन बोलकर दीक्षित होने पर भी जो प्राप्त हुए कामभोगों का सेवन करते हैं और भगवान् की आज्ञा से विपरीत आचरण कर मुनिवेश को लजाते हैं और विषयसेवन के उपायों की शोध में लगे रहते हैं और विषयों में अत्यन्त गृद्ध बने रहते हैं वे न तो इसपार रहते हैं और न उसपार पहुँच सकते हैं ( न तो गृहस्थ रहते हैं और न मुनि ही रहते हैं ) । प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार उस व्यक्ति की दयनीय स्थिति का वर्णन करते हैं जो पहिले तो संयम अंगीकार कर लेता है और बाद में विषयों पर नजर रखता है । पहिले तो प्राणी अभिमान पूर्वक यह प्रतिज्ञा कर लेता है कि मैं अपरिग्रही रहूँगा । अन्तिम व्रत के ग्रहण करने से पूर्व के अहिंसादि चारों व्रतों का भी ग्रहण समझना चाहिये अर्थात् मैं अहिंसक, सत्यवादी, अस्तेय व्रती, ब्रह्मचारी बनंगा। यों प्रतिज्ञा करके संयम अङ्गीकार करने पर भी जो प्राप्त हुए भोगों को ग्रहण करते हैं वे नट के समान अन्यथा बोलने वाले और अन्यथा करने वाले हैं । वे अपनी रुचि के अनुसार स्वेच्छापूर्वक शास्त्र बना लेते हैं और अनेक उपायों द्वारा संसार को धोखा देने की चेष्टा करते हैं । दुनिया को यह दिखलाते हैं कि हम साधु हैं, मुनि हैं परन्तु वे विदूषक और बहुरूपिये की भांति केवल स्वांग बनाने वाले हैं, मात्र वेषधारी हैं। इस प्रकार भगवान की आज्ञा से विपरीत आचरण करने वाले, मुनिवेश को कलंकित करने वाले वे काम विषयों के उपायों को ढूढ़ते रहते हैं और विषयों में अतिशय आसक्त रहते हैं । जिस प्रकार महान् गहन कीचड़ में फंसा हुआ हाथी अपने आपको उस कीचड़ से नहीं निकाल सकता है, वैसे ये प्राणी विषयों में ही खूब For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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