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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir करने वाला कोई दूसरा संस्करण नहीं था। यह अभाव उस समय खटका । मेरे सद्भाग्य से उस समय अन्तःकरण में यह शुभ प्रेरणा हुई कि अपनी शक्ति के अनुसार इस दिशा में यत्किञ्चित् प्रयास किया जाय । किसी शुभ घड़ी में यह अन्तर-प्रेरणा हुई कि उसने शीघ्र ही मूर्तरूप ले लिया और वीतराग-बाणी की यथाशक्ति यत्किञ्चित् सेवा बजाने का प्रयास करने जितना साहस बटोर कर मैंने लिखना प्रारम्भ किया । उस समय रतलाम में चलने वाली सिद्धान्तशाला के सुयोग्य अध्यापक पं. बसन्तीलालजी नलवाया के सन्मुख मैंने अपना उक्त विचार प्रकट किया। उन्होंने यह सुनकर हार्दिक प्रसन्नता प्रकट की और मुझे . इस पवित्र कार्य के लिए प्रोत्साहन देते हुए आवश्यकतानुसार पूरा २ सहयोग देने की अपनी भावना व्यक्त की। सहयोग और साधन-सामग्री के आधार पर अनुवाद के कार्य का मंगलमय आरंभ किया गया। यही प्रस्तुत संस्करण के निर्माण की आद्य भूमिका है। : .. प्रस्तुत संस्करण आरम्भ में मूल, शब्दार्थ और भावार्थ लिखने का ही विचार था और इसी विचार के अनुसार पूरा प्रथम अध्ययन लिखा भी जा चुका परन्तु उससे चाहिए जैसा सन्तोष नहीं हुआ । साधारण कोटि 'के जनसमुदाय के लिए भी आचारांग का मर्म ग्राह्य हो सके इसके लिए और भी अधिक भावोद्घाटन करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। इस आशय से प्रेरित होकर भावों को अधिक स्पष्ट करने के लिए सरल विवेचन भी लिखना आवश्यक और उचित प्रतीत हुआ अतःप्रारम्भ से विवेचन लिखा गया। विवेचन में प्रायः टीका का उपयोगी २ बहुत सारा विषय ले लिया गया है। साथ ही यह सब दृष्टियों से परिपूर्ण संस्करण तैयार हो इस अभिप्राय से इसमें संस्कृतच्छाया और टिप्पण भी दे देना उचित समझा । इस तरह प्रस्तुत संस्करण में संशोधित मूलपाठ, संस्कृतच्छाया, अन्वययुक्त शब्दार्थ, भावार्थ, विवेचन और आवश्यक टिप्पणियाँ दी गई हैं। - मूलपाठ की अधिक से अधिक शुद्धता और प्रामाणिकता की भोर पर्याप्त लक्ष्य दिया है । श्री धर्मदास जैन मित्र मण्डल रतलाम के पुस्तकालय में विद्यमान हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों और भागमोदय समिति की ओर से प्रकाशित सटीक संस्करण को सामने रखकर पाठ का निर्णय किया गया है। इसमें टीकाकार द्वारा सम्मत पाठ को मुख्य मान्यता दी गई है। अनुवाद और विवेचन करते हुए भी प्रायः टीकाकार के आशय को लक्ष्य में रक्खा गया है । विशिष्ट पाठ भेदों का संकलन करके परिशिष्ट में पाठान्तरों की अलग सूची दी गई है। साथ ही पारिभाषिक शब्दकोष भी परिशिष्ट में दिया गया है ताकि जेनेतर जनता को भी उन शब्दों के अर्थ के सम्बन्ध में किसी तरह का भ्रम न हो और वे उसके ठीक-ठीक अभिप्राय को समझ सकें । इस प्रकार प्रस्तुत संस्करण को अधिक से अधिक उपयोगी बनाने का प्रयास तो किया गया है परन्तु इसमें कहाँ तक सफलता मिली है इसका निर्णय तो पाठक ही कर सकते हैं। सहायक और सहायक ग्रन्थ प्रस्तुत अनुवाद और विवेचन करते हुए मेरे सामने आचारांग सूत्र की शीलाकाचार्य विरचित संस्कृत टीका (जिसमें भद्रबाहुस्वामी-विरचित नियुक्ति भी है और जो आगमोदय समिति की ओर से प्रकाशित हुई है ), पूज्य अमोलकऋषिजी म. कृत हिन्दी अनुवाद और संतबालजी कृत गुजराती अनुवाद मुख्यरूप से थे। विवेचन में संतबालजी द्वारा लिखित गुजराती नोंधों का अवलम्बन लिया गया है। और भी कतिपय ग्रन्थों का प्रस्तुत संस्करण के लिए उपयोग किया गया है। अतः उन सब लेखकों और अनुवादकों का मैं आभार मानता हूँ । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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