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[च ] - तृतीय अध्ययन में यह बतलाया गया है कि त्यागमार्ग में चलते हुए अनेक इष्ट-अनिष्ट संयोगों में से गुजरना होता है । अतः साधक को उनसे विचलित न होना चाहिए। इसके लिए 'शीतोष्णीय' अध्ययन में सुख-दुख-सहिष्णु बनने की-समभाव रखने की शिक्षा प्रदान की गई है। इष्ट-अनिष्ट में समभाव रखना ही स्थितप्रज्ञता है। इसकी अाराधना, साधना का उपयोगी अंग है ।
चतुर्थ 'सम्यक्त्व' अध्ययन में साध्य के प्रति अटल श्रद्धा रखने का विविध रीति से प्ररूपण किया गया है। मोक्ष और मोक्ष के साधनों के प्रति जब तक पर्वत की भांति अडोल विश्वास नहीं होता तब तक उनकी ओर हार्दिक प्रवृत्ति नहीं होती अतः श्रद्धा के दीपक को प्रबल झंझावात में भी सुरक्षित रख सकने की शक्ति साधक में पैदा होनी चाहिए। यह चतुर्थ अध्ययन का निरूपणीय विषय है। ____ पाँचवे अध्ययन में चारित्र को लोक का सार कहा गया है। इस असार संसार में चारित्र ही सार है अतः साधक को चारित्र के विकास की ओर ध्यान देना चाहिए । सम्यक् और शुभमार्ग पर प्रवृत्ति करना और असम्यक् एवं अशुभ क्रियाओं से निवृत्त होना सच्चा चारित्र है। यह समझ कर अशुभ और अशुद्ध क्रियाओं से बचना चाहिए । यही चारित्र है और यही लोक-सार है।
छठे अध्ययन में कर्म-मैल को धो डालने के उपायों का दिग्दर्शन कराया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि दीक्षा लेने के बाद भी पूर्वसंस्कार जागृत होकर साधक को विचलित करने का प्रयास करते हैं अतः साधक को इस विषय में सावधान रहना चाहिए । उपयोगपूर्वक देह-दमन, अनन्य भक्ति, समभाव आदि कर्म-विनाश के उपाय हैं । सप्तम अध्ययन विच्छिन्न हो गया अतः उसके विषय में किसी प्रकार की कल्पना नहीं की जा सकती।
___ आठवें अध्ययन में कुसंग-परित्याग, प्रलोभनविजय, संकल्पबल की सिद्धि, प्रतिज्ञापालन, स्वादनिग्रह तथा समाधिमरण का वर्णन किया गया है।
नौ अध्ययन में साधना-जीवन के आदर्श के रूप में स्वयं भगवान की साधक अवस्था का वर्णन किया गया है। साधना के मार्ग में आने वाले परीषह-उपसर्गों में कैसी सहनशीलता रखते हुए संयम की साधना करनी चाहिए यह बताना ही इस अध्ययन का अभिधेय है।
तात्पर्य यह है कि आचाराङ्ग में अहिंसा, सत्य, त्याग, संग्रम, तप, अनासक्ति इत्यादि का तलस्पर्शी विवेचन है और इसमें वे सब तत्त्व विद्यमान हैं जो आध्यात्मिक जीवन की सर्वतोमुखी प्रगति के लिए अनिवार्य हैं। अनुवाद की प्रेरणा --
___ इस विशिष्ट आगम-ग्रन्थ के लिए आरम्भ से आकर्षण था ही । इस बीच शारीरिक कारण से रतलाम में कुछ अधिक समय तक रुक जाने का प्रसंग उपस्थित हुआ। शहर से बाहर दीवान बहादुर सेठ केशरीसिंहजी सा. कोटा वाले के विशाल उद्यान में बने हुए भवन में स्वास्थ्य के हेतु ठहरना पड़ा। वहाँ कतिपय स्वाध्यायप्रेमी और वाचनरसिक बन्धुओं के साथ प्रातःकाल के समय दैनिक वाचन का कार्यक्रम रक्खा था। उन बन्धुओं के साथ वाचन और शास्त्रीय विषयों पर विचारों का आदान-प्रदान करते हुए आचारांग सूत्र के पुनर्वाचन का अवसर प्राप्त हुआ। उस समय पूज्य श्री अमोलकऋषिजी म. कृत हिन्दी अनुवाद के अतिरिक्त हिन्दी भाषा में आचारांग के गम्भीर पदों के अर्थ को स्पष्ट रूप से व्यक्त
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