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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir लोक-विजय नाम द्वितीय अध्ययन -प्रथम उद्देशक प्रथम अध्ययन में सामान्यतः जीव का अस्तित्व सिद्ध करके, पृथ्वी, अप श्रादि अव्यक्त चेतना वालों में भी सयुक्तिक घेतना का प्रतिपादन करके, षट्काय के जीवों के वध में कर्मबन्धन और वध से निवृत्ति करने से मोक्ष होता है यह विषय प्रतिपादित किया गया है । प्रथम अध्ययन में सूक्ष्म अहिंसा का प्रतिपादन करके सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि मुमुक्षु के लिये कल्याण करने का सर्वप्रथम सोपान अहिंसा ही है । अहिंसा ही संयम है और संयम ही मोक्ष का साधन है । अतएव प्रथम अध्ययन का उपसंहार करते हुए सूत्रकार ने फरमाया है कि जो षट्काय के जीवों के वध से निवृत्त हो चुका है वही परिज्ञा (विवेक) सम्पन्न मुनि है । मुनि के गुणों में अहिंसा को प्रथम स्थान देने के बाद अन्य जिन २ गुणों की आवश्यकता होती है वे इस अध्ययन में प्ररूपित करते हैं। इस द्वितीय अध्ययन का नाम "लोक विजय" है । “लोक" शब्द का अर्थ "संसार” है । पतिपत्नी का सम्बन्ध, माता-पिता और सन्तान का सम्बन्ध, धन धान्य, वैभव आदि का संसर्ग, यह बाह्य संसार है । और बाह्य संसार के संसर्ग से उत्पन्न होने वाले आसक्ति, ममता, स्नेह, वैर, अहंकार आदि भाव जो आत्मा पर असर करते हैं-वह आभ्यन्तर संसार हैं । यह आन्तरिक संसार (भाव संसार) बाह्य संसार का कारण रूप है । वस्तुत: भाव संसार पर विजय प्राप्त करना ही सच्ची लोक विजय है। लोकविजय का अर्थ दशों-दिशाओं को जीतकर अपना भौतिक साम्राज्य स्थापित करना नहीं है परन्तु इसका आशय है: जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस सो परमो जत्रो । अर्थात्-श्रात्मविजय करना ही परमविजय है । यद्यपि भाव संसार पर विजय प्राप्त करना सच्ची विजय है तो भी भावविजय के लिए द्रव्य संसार की निवृत्ति आवश्यक साधन है। इसी प्राशय से इस अध्ययन के प्रथम उद्देशक में स्वजन, माता-पिता पुत्र, पति-पत्नी आदि सम्बन्धों का विवेक समझाया गया है। कर्मवाद के सिद्धान्तानुसार समानतत्त्व के कारण या ऋणानुबन्ध के कारण माता, पिता, पतिपत्नी आदि सम्बन्ध बनते हैं। कर्मों की आंशिक समानता या ऋणानुबन्ध के कारण भिन्न भिन्न स्थानों से आकर प्राणी सम्बन्ध के बन्धन में जुड़ जाते हैं। इस प्रकार के सम्बन्धों में अगर कर्तव्यों का बोध हो तो विकास को स्थान है परन्तु कर्त्तव्य सम्बन्ध न होकर जब मोह सम्बन्ध ही रह जाता है तो यह गहन अवनति का कारण हो जाता है । मायाजाल में फसा हुआ प्राणी सम्बन्ध के नाम से मोह का पोषण करता हुआ विविध पाप कर्म करता है। जब कर्त्तव्य सम्बन्ध है और मोह सम्बन्ध नहीं है तो सम्बन्धी के मरण हो जाने पर भी शोक, या खेद होताही नहीं है। इसी तरह सम्बंध जुड़ने पर हर्ष का कोई कारण ही नहीं है। यह हर्ष या शोक तो केवल मोह सम्बंध में ही होता है। यह मोह संबंध ही बंधन है अतः इसे त्यागने का उपदेश करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं: For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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