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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रथम अध्ययन सप्तमोदेशक: ] [ परिज्ञासम्पन्न ( विवेकी) साधु हैं । सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं कि हे जम्बू ! सर्वज्ञानी और सर्वदर्शनी भगवान् से यह कथन मैंने स्वयं सुनकर तुझे कहा है ! विवेचन - व्याख्यान परिपाटी का यह क्रम है कि व्याख्यान के अन्त में नयों का विचार किया जाता है। वैसे तो नय अनन्त हैं तदपि संक्षेप से नय के दो भेद लिये जाते हैं- ज्ञाननय और चरणनय । ज्ञाननय ज्ञान की प्रधानता कहते हैं और चरणनय, चारित्र की प्रधानता बतलाते हैं परन्तु बात यह है कि नय एक अंश को ही ग्रहण करते हैं अतएव जब वे अपने गृहीत अंश को ही वस्तु मानते हैं और शेष शों का तिरस्कार करते हैं तो वे दुर्नय (नयाभास ) हैं । अतः मिथ्यादर्शन में जाते हैं। वस्तुतः ज्ञान और क्रिया परस्पर सापेक्ष हैं और उभय प्रधान हैं । न ज्ञानहीन क्रिया मोक्ष दे सकती है और न क्रियाज्ञान मोक्ष दे सकता है। पूर्व टिप्पणियों में यह विषय श्रा चुका है अतः अलम् विस्तरेण । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - उपसंहार इस प्रथम अध्ययन में जीव का अस्तित्व, कर्मबन्धन का कारण और मोक्ष इन तत्त्वों का निरूपण किया गया है और आत्मविकास के लिये, विचार, विवेक और संयम इनका तीन अंगों का वर्णन करके द्रव्य और भाव हिंसा छूटने के उपाय बताये गये हैं । वस्तुतः अहिंसा ही संयम हैं और संयम से ही अहिंसा साध्य होती है । अत: अहिंसा के तत्त्व को हृदयंगम करने में ही आत्मकल्याण है। राग, द्वेष, वैरभाव, ईर्षा, अविवेक, मानसिक दुष्टता ये सभी भाव हिंसा के अंग हैं और भावहिंसा, द्रव्यहिंसा भी कराती है जिससे आत्मा का पतन है, चैतन्य को चैतन्य समान समझ कर किसी को पीड़ा न पहुंचा कर अगर प्रत्येक प्राणी के साथ शुद्ध प्रेम का आचरण किया जाय तो इसी में सिद्धि है । "आत्मवत् सर्वभूतेषु" का सत्य, शिव और सुन्दर सिद्धान्त और प्रभु का यह अमर संदेश संसार के प्राणियों का कल्याण करे और सदा विजयी रहे। जैनं जयति शासनम् । - इति प्रथममध्ययनम् For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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