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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०६ विकृतिविज्ञान लक्षणों को कहा जा चुका है अतः इस स्थल पर लौहताम्रादि के अभाव से होने वाले रक्तक्षयों पर प्रकाश डाला जा रहा है। पाण्डुरोग का वर्णन करते समय पाण्डुत्वेनोपलक्षितो रोगः पाण्डुरोगः ऐसा मधुकोशकार ने व्यक्त किया है। जिसमें दोषाः रक्तं प्रदूष्य त्वचं पाण्डुरतां नयन्ति वही पाण्डुरोग है । आयुर्वेदज्ञों ने पाण्डुरोग का जो वर्णन किया है उसे देखकर तथा उसकी चिकित्सा में लोहभस्म, मण्डूरभस्म, कान्तलोह, तीक्ष्णलोह, ताम्रभस्म आदि का प्रचुर मात्रा में उपयोग लिखा है जो प्रकट करता है कि इसी वर्ग के रक्तक्षय को पाण्डुरोग से सम्बोधित किया गया है । रक्तक्षयान्तक द्रव्याभावजनित रक्तक्षय का उल्लेख पाण्डुरोग के साथ नहीं ही दिखता । रक्तपित्त प्रकरण में यकृद्भक्षण का सुश्रुत वा वाग्भटीय उदाहरण घातक रक्तक्षय के लिए प्रयुक्त यकृत् से भिन्न है उसकी कल्पना वहाँ मूर्तरूप धारण नहीं कर सकी है। सम्भव है प्राचीन काल में घातक रक्तक्षय की उत्पत्ति का अवसर ही न आया हो। अथवा इस रक्तक्षय को वे विविध हरे पदार्थों जड़ी बूटियों के स्वरस के साथ लोहादि के प्रयोग से ठीक कर लेते हो और उन्हें रक्तक्षयान्तक द्रव्य की कमी को समझने का या उसकी खोज का अवसर ही न मिला हो । क्योंकि पाण्डुरत्वचा कह देना एक उपलक्षण मात्र है रूक्षकृष्णारुणाभता ( वातिक), पीताभता (पैत्तिक ) और शुक्लता (कफज ) के द्वारा उन्होंने पाण्डु के वर्गीकरण में किस-किस का ग्रहण न किया होगा इसे आज कहना आसान नहीं है। इस वर्ग के रक्तक्षय में मुख्य लक्षण शोणवर्तुलि ( हीमोग्लोबीन ) की अल्पता वा हीनता का पाया जाना है । रक्त के लालकणों की संख्या इस रोग में कम न होकर उनके वर्ण में फीकापन पाया जाना विशेष महत्त्व की बात है। शोणवर्तलि की कमी होने से लालकण अवश्य उपवर्णिक (फीके) पड़ जाते हैं। रंगदेशना ( colour index ) ०.५ या उससे भी नीचे चली जाता है। जब रोग साधारण रहता है तब उनके आकार में विशेष परिवर्तन नहीं भी मिलता पर आगे चलकर लाल होकर छोटे होने लगते हैं और इसीलिए लघुकायाण्विक शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह तो रही रक्त के लालकणों की अवस्था । रक्त के श्वेतकणों में इस रोग में काई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन न देखा जाने पर भी उनकी संख्या में कमी जिसे हमने सितकोशापकर्ष ( leucopenia) कह कर पुकारा है, देखी जासकती है। इस रक्तक्षय का मुख्य कारण जैसा कि पहले बताया जा चुका है लोहे की कमी है। इस कमी के निम्नांकित कारण हो सकते है: १. अत्यधिक रक्तनाश। २. आहार में लोहयुक्त पदार्थों का सर्वथा अभाव । ३. लोहलौल्य अर्थात् शरीर को लोहे की इतनी आवश्यकता पड़े कि उसे पचाया तथा प्रचूषित न किया जा सकता हो। इनमें अत्यधिक रक्तनाश के द्वारा होने वाली लोहे की कमी प्रमुख है। यह सम्भव है कि किसी व्यक्ति के शरीर से रक्त के लोहांश का बहुत भाग नष्ट हो जाय For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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