SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 995
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुधिर वैकारिकी ६०५ रक्तक्षय बहुत अधिक मिलता है । इसे विकृतिवेत्ताओंने विशिष्ट जातिजन्य कारण के अन्तर्गत माना है । कुछ भी हो यह सत्य है कि पट्ट कृमि एक स्थान पर रक्तक्षय उत्पन्न करता है और दूसरे स्थान पर नहीं । ( ५ ) सगर्भावस्था में बृहत्कायाण्विक रक्तक्षय के भी दर्शन हो सकते हैं और भारतवर्ष में सूक्ष्म कायाण्विक रक्तक्षय उतना देखने में नहीं आता जितना गर्भिणी स्त्रियों में इस रक्तक्षय के दर्शन हो जाया करते हैं । घातक रक्तक्षय से इसका चित्र भले प्रकार मिलता है । एक महत्त्व की बात जो इसके सम्बन्ध में समझ लेनी चाहिए वह यह है कि बहुधा यह रक्तक्षय गर्भावस्था की समाप्ति के साथ समाप्त हो जाता है और इसकी पुनरुत्पत्ति दूसरी सगर्भावस्था के अभाव में प्रायः नहीं होती । जब कि वास्तविक घातक रक्तक्षय में वह प्रवृत्ति अवश्य पाई जाती है । विद्वानों का कथन तो यह है कि यह रोग भी उन्हीं कारणों होता है जिनसे वास्तविक घातक रक्तक्षय हुआ करता है । कुछ विद्वानों के मत से प्रसवोत्तरकाल में भी यह रक्तक्षय बना रह सकता है तथा यकृच्चिकित्सा विटामीन बी कम्प्लैक्स का उपयोग और लोहे के प्रयोग से ठीक हो जाया करता है । 1 जिसके परिणाम - ( ६ ) आमाशयोच्छेद ( gastrectomy ) जन्य रक्तक्षय - आमाशय के अम्लजनक भाग का उच्छेद कर देने से भी परमवर्णिक बृहत्कायाण्विक रक्तक्षय की उत्पत्ति सम्भव हो सकती है । इसका कारण स्पष्ट है । रक्तोत्पत्तिकारक तत्व के निर्माण में जो आभ्यन्तरकारक भाग लेता है उसका जन्म ही आमाशय में होता है । आमाशय के अभाव में इस कारक का भी अभाव हो जाता है स्वरूप रक्तोत्पत्तिकर तत्व का निर्माण रुक जाता है जो अन्त में प्रभाव डालकर घातक रक्तक्षय के समान रक्तक्षय उत्पन्न कर देता है । इसी प्रकार आमाशयिक कर्कट होने पर अनीरोदता होकर घातक रक्तक्षय जैसा रक्तक्षय बन जाता है तथा घातक रक्तक्षय एवं आमाशयिक कर्कट में अब विद्वान् सम्बन्ध भी जोड़ने लगे हैं । अस्थि-मज्जा पर इसी प्रकार यकृत् में विकार होने से रक्तोत्पत्तिकर तत्व का संचय यकृत् में नहीं हो पाता और शरीर में उसकी कमी बराबर अनुभव में आने लगती है और परमवर्णिक बृहत्कायाण्विक रक्तक्षय की उत्पत्ति में सहायक होती है । ( ख ) वे रक्तक्षय जिनमें रक्तोत्पत्तिकारक लोहादि द्रव्यों का अभाव रहता है। उपशयात्मक चिकित्सा से जिसमें लाभ हो वह रक्तक्षय-क्षेत्र यहाँ प्रकट किया गया है । अर्थात् लोहे की कमी से होने वाला वह रक्तक्षय है जो लोहे के सेवन से ठीक हो जाय या अन्य किसी तत्व की कमी से होने वाला रक्तक्षय जब उस तत्व की प्राप्ति करके ठीक हो जाय वह भी इसी के अन्तर्गत आ सकता है उस दृष्टि से घातक रक्तक्षय भी उपशयात्मक है क्योंकि वह रक्तक्षयान्तक तत्व के संग्रहस्थल यकृत् के प्रयोग से शान्त होता है पर उसका वर्णन हो चुका है और उसके विविध For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy