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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुधिर वैकारिकी ८६६ रक्तरस ( plasma ) में भी विकृति आती ही है । उसमें अधिक रक्त के लालकों का अधिक विनाश होने के कारण पित्तरक्ति की मात्रा बढ़ने लगती है जो उसमें पीत वर्ण की वृद्धि कर देती है । इसी कारण प्रकृत कामला देशना ( normal icterus index ) जो केवल ५ होती है वह अब ५ से १५ तक पाई जा सकती है । मूत्र में भी मूत्रपित्तिजन ( urobilinogen ) की वृद्धि होने से फान डैनब प्रति क्रिया असत्यात्मक अप्रत्यक्ष ( positive indirect ) हो जाती है । यह सब ज्ञान वहाँ बहुत उपादेय सिद्ध होता है जहाँ कोशिकीय चित्र ( cytological pictune ) अनिश्चित रहने से निदान की निश्चिति में कठिनाई का अनुभव होता है । अस्थिमज्जा के बाहर रक्तनिर्माण इस रोग में होता हुआ देखा जा सकता है । पर वह कितने परिमाण में होता है यह ज्ञान करना कठिन पड़ता है । यह बात सत्य है कि गर्भस्थ शिशु में पञ्चम मास के पूर्व रक्त का निर्माण यकृत् तथा प्लीहा के द्वारा होता है । प्राचीन आचार्यों ने इस तथ्य को अपने सामने रख कर तथा रक्तक्षय के पीडितों में देख कर - स खल्वाप्यो रसो यकृत्प्लीहानौ प्राप्य रागमुपैति । ( सुश्रुत सूत्र १४ ) ऐसा लिख दिया है । इसी को वाग्भट ने प्रभवत्यसृजः स्थानात्प्लीहती यकृतश्च तत् । कह कर रक्तपित्तकासनिदान में स्पष्ट किया है । सुश्रुत ने शारीरस्थान ४ में यद्यपि मेदोधरा कला के वर्णन में स्थूलास्थिषु विशेषेण मज्जा त्वभ्यन्तराश्रितः । कह कर - अथेतरेषु सर्वेषु सरक्तं मेद उच्यते । भी कहा है। उसने छोटी हड्डियों में सरक्तमेद के दर्शन किए हैं और उसकी दृष्टि में इस सरक्त मेद का विचार आया भी है पर रक्तोत्पत्ति में सरक्तमेद की महत्ता को आधुनिक वैज्ञानिकों ने ही अधिक स्पष्ट किया है । अस्तु, जब शरीर में रक्त की परमावश्यकता घातक रक्तक्षय में आ उपस्थित होती है तो यकृत् में विशेष करके एवं प्लीहा में भी मज्जाभ ऊति की द्वीपिकाएँ इतस्ततः उत्पन्न हो जाती हैं और उनसे भी रक्तोत्पत्ति होना आरम्भ हो जाता है । परन्तु जहाँ शरीर की सम्पूर्ण मज्जा में एक क्रान्ति आई हो और उसकी पीतता सरक्तमेद में परिणत हो गई हो वहाँ इनका क्या विशेष महत्त्व हो सकता है ? पर महत्ता हो या न हो, यकृत् तथा प्लीहा भी अपने गर्भकालीन कार्य में पुनः तत्पर होकर रक्तोत्पत्ति कर सकते हैं । अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जिन आचार्यों ने इतनी सूक्ष्म दृष्टि से यकृत् तथा प्लीहा में रक्तोत्पत्ति के दर्शन किए उन्होंने सरक्तभेद में रक्तोत्पत्ति का क्यों ध्यान नहीं दिया । हमारे विचार से आचार्यों ने एक ही तत्व को प्रधानता दी । वह यह कि उनके मत में यकृत और प्लीहा में एक साथ या अलग-अलग कोई विकार होने पर रक्तोत्पत्ति में विघ्न या खराबी देखने में आई इससे उन्होंने समझ लिया कि रक्तोत्पत्तिकारक भाव या तस्व यकृत् वा प्लीहा या दोनों में निहित है । वास्तविकता भी यही है । रक्तोत्पत्ति For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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