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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६८ विकृतिविज्ञान लाल कणों के विकास में नहीं माना जाता। इससे रक्त के प्रवाह में लाल कणों को संख्या में कमी तथा अपेक्षाकृत बहुत थोड़े ऋजुरुहों की उपस्थिति का स्पष्टीकरण हो जाता है । यही एक प्रतिक्रिया रोग की विकृति की ओर स्पष्टतः निर्देश करती है। जब रोग थम जाता है तब ऋजुरुहात्मक ( normoblastic ) प्रतिक्रिया लौट आती है। यह नहीं समझना चाहिए कि परमचयिक अस्थिमज्जा में केवल बृहद्रक्तरुह नामक कोशा ही होते हैं। प्रारम्भिक श्वेतकोशा-मज्जकोशा तथा मज्जरुह ये दोनों प्रकार के कोशा बहुत दिखलाई देते हैं। एक बात और है इन श्वेतकोशापूर्वजों की उपस्थिति के साथ-साथ सितकोशापकर्षे ( leucopenia) भी रहता है। इसका भी एक ही उत्तर है कि लालकों की तरह श्वेतकण भी पूर्ण विकसित होने में असफल रहते हैं और जबतक उनका पूर्ण विकास या प्रगल्भन नहीं हो जाता तबतक वे रक्त प्रवाह में प्रविष्ट होने में भी असफल रहते हैं। इससे ऐसा लगता है कि मानो कोई एक तत्व जो मज्जकोशाओं ( myelocy tes ) को बह्वाकारी सितकोशाओं में बदलता है उसका सर्वथा अभाव हो जाता है। यही कारण है कि घातक रक्तक्षय में अस्थिमज्जा के अन्दर पुष्ट बह्वाकारियों की संख्या स्वस्थव्यक्ति की रक्तमज्जा में पाई जाने वाली संख्या से बहुत कम पाई जाती है । बृहन्न्यष्टिकोशाओं ( megacaryocy tes ) की संख्या भी घट जाती है। उनमें जो बृहन्न्यष्टि कोशा देखे भी जाते हैं वे छोटे एवं विहृष्ट ( degeneratad ) होते हैं इसी के कारण बिम्बाण्वपकर्ष ( thrombocytopenia ) हो जाता है । रोग के पुनरागमन ( relapse ) के समय शोणायसी युक्त भक्षिकोशा या रक्त कायाणु खूब देखे जा सकते हैं। उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो गया होगा कि घातक रक्तक्षय में सित कोशाओं की संख्या घट जाती है और सितकोशापकर्ष प्रगट हो जाता है। यह अपकर्ष विशेष करके बह्वाकारियों में ही होता है जिसके कारण सापेक्षतया लसीकोशोत्कर्ष का आभास होने लगता है अर्थात् बह्वाकारी जो सदा रक्त में अन्य सितकोशाओं से अधिक रहा करते हैं उनकी संख्या घट जाती है जिससे लसीकोशा न बढ़ने पर भी अपेक्षया अधिक देखने में आते हैं क्योंकि उनकी संख्या तो इस रोग में घटती नहीं है। एक बात और, घातक रक्तक्षय में जो भी बह्वाकारी मिलते हैं वे अन्य रक्तक्षयों की अपेक्षा अधिक खण्डित ( lobed ) होते हैं। व्यावहारिक दृष्टि से यह बात बहुत लाभप्रद है। वास्तविकता तो यह है कि रक्तक्षय के लिए ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से श्वेत कणों का अध्ययन जितना लाभप्रद हो सकता है उतना लालकों का नहीं (ब्वायड)। सितकोशापकर्ष घातक रक्तक्षय में इतना अधिक देखा जाता है कि यदि रोगी तीनोपसर्ग से भी पीडित हो जाय तो भी सितकोशोत्कर्ष ( leucocytosis ) के दर्शन नहीं हुआ करते। इसका हेतु या दोष सदैव अस्थिमज्जा में निहित रहता है। अस्थि मज्जा मज्जकीय कोशाओं से भर जाती है। परन्तु मज्जकीय कोशाओं में प्रगल्भन होना रुक जाता है इस कारण बह्वाकारियों की उत्पत्ति बहुत ही कम होती है और उनकी संख्या रक्त में घट जाती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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