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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुधिर वैकारिकी ८६५ होना उसका मुख्य लक्षण है। उसके अनेको कोशाओं में बहुवर्णप्रियता पाई जाती है। रक्त का लालकण मूल से क्षारप्रिय ( basophilic) हुआ करता है। ज्यों ज्यों उसमें शोणवर्तुलि का प्रवेश होने लगता है वह अम्लप्रिय ( acidophilic) होने लगती है। यहाँ तक कि पूर्ण प्रगल्भ कोशा पूर्णतया अम्लप्रिय हो जाता है। पर इस रोग में शोणवर्तुलि जब आंशिकरूप से प्रगट होती है तो कुछ भाग क्षारप्रियता तथा कुछ अम्लप्रियता प्रकट किया करते हैं जिससे रंजन में अनेक वर्णता दिखाई देने लगती है जिसे हम बहुवर्णप्रियता (polychromatophilia) कहते हैं। इसके साथ-साथ क्षारप्रिय विन्दुकता (bosophilic stippling) पाई जा सकती है । जो एक प्रकार से कणनीय विहास (granular degeneration) ही होता है । इसके साथ साथ जालिकीय कोशा ( reticulocytes) का भी प्रादुर्भाव होता है जो स्वयं रक्तकण के अपूर्ण प्रगल्भन की ओर स्पष्टतः संकेत करता है। जब कि साधारणतया कुल एक प्रतिशत जालिकीय कोशा रक्त में पाये जाते हैं घातक रक्तक्षय में वे ५ प्रतिशत तक देखने में आते हैं । जालिकीय कोशाओं की रक्तचित्र में वृद्धि सदैव अस्थिमज्जा की क्रियाशीलता की ओर स्पष्ट निर्देश है। यकृच्चिकित्सा के उपरान्त यह वृद्धि और भी बढ़ जाया करती है । अनघटित रक्तक्षय (aplastic anaemia) में जहाँ अस्थिमज्जा में क्रियाशीलता का सर्वथा अभाव पाया जाता है जालिकीय कोशाओं की अनुपस्थिति ही प्राप्त होती है। पर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जालिकीय कोशों का दर्शन साधारण अभिरञ्जनों में सम्भव न होकर विशिष्ट अभिरञ्जनों की आवश्यकता पड़ती है। सन्यष्टि रुधिराणुओं की उपस्थिति भी इस रोग में पाई जाती है जो रुधिराणुओं की अप्रगल्भता ( immaturity ) का स्पष्ट प्रमाण है । न्यष्टियुक्त लालकण ऋजुरह तथा बृहद्रतरुह दोनों हो सकते हैं। पर जहाँ ऋजुरुह (normoblasts ) किसी भी तीव्र रक्तक्षय में आसानी से देखे जाते हैं बृहद्रक्तरुह ( megaloblasts ) विशेबतया घातक रक्तक्षय ही में देखने में आते हैं। ऋजुरुहों की अपेक्षा बृहद्रक्तरुह ही अधिक बड़ा होता है। इसकी न्यष्टि भी अधिक बड़ी और खुली होती है। इसका कोशाप्ररस ( cytoplasm ) या तो बहुवर्णप्रिय होता है या वह शुद्ध क्षारप्रिय भी देखा जा सकता है। इनकी न्यष्टि में विभजन भी मिलना सम्भव है। एक बात और स्मरण रखनी होगी कि बृहद्रक्तरूहों की उपस्थिति रक्त में तभी तक देखी जाती है जब लालकणों का गणन २० लाख प्रतिघन मिलीमीटर के नीचे रहता है। जब यह गणन २५ लाख पर पहुँच जाता है तो फिर इनको खोजना बहुत कठिन हो जाता है। एक बात और । यतः घातक रक्तक्षय में रक्त के कण अप्रगल्भ रहते हैं इसलिए उनकी भिदुरता या भङ्गुरता ( fragility ) कम हो जाती है। क्योंकि पुराने लालकणों को जब उपबल लवण विलयन ( hypotonic saline solution ) के सम्पर्क में लाया जाता है तो वे बहुत जल्दी भङ्गुर हो जाते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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