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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुधिर वैकारिकी ८७३ परमवर्णिक रक्तक्षय होने पर यह वक्र रेखा दक्षिण की ओर सरक आती है। अल्पवर्णिक रक्तक्षय में वह वामदिशा की ओर सरक जाती है। इस वक्रता के द्वारा बहुत थोड़े ही परिश्रम से रक्तक्षय का स्पष्ट चित्र प्राप्त हो जाता है। स्वरूपसम्बन्धी परिवर्तन-यह परिवर्तन सामान्यतः सभी रक्तक्षयों में मिला करता है। इसमें रुधिराणु विरूपाकृतिक हो जाते हैं । इसी को त्रिरूपकायोत्कर्ष (poikilocytosis ) कहा जाता है। इसके कारण रुधिराणु लम्बोतरे, नाशपाती या अंजीर की शकल के बन जाते हैं। विरूप बने कोशाओं को विरूपकोशा ( poikilocyte ) कहा जाता है । जब विरूपकोशा रक्त में अपनी उपस्थिति बतला दें तो जान लेना होगा कि रक्त मज्जा के अन्दर पुनर्जनन क्रिया सक्रिय हो गई है। जिन रक्तक्षयों में यह क्रिया चालू नहीं की जा सकती वहाँ विरूपकोशा कदापि नहीं मिलते। जैसा कि अनघटित (अचयिक) रक्तक्षय (aplastic anaemia) में ये विरूपकोशा नहीं ही मिला करते । अभिरञ्जन सम्बन्धी परिवर्तन-यह नियम है कि स्वस्थ परिपक्व रुधिराणुओं का अभिरञ्जन केवल अम्ल रंगों द्वारा ही होता है। उपसि (इओसिन) एक प्रकार का अम्ल रंग होने से इसके साथ वे बड़े मजे से रंग जाते हैं। यदि ये अपरिपक्व (immature ) हों तो इनका अभिरंजन अम्ल और क्षार दोनों प्रकार के रंगों से हो सकता है । अपरिपक्क रुधिराणुओं में न्यष्टि अनेक सूक्ष्म कणों में विभक्त हुई छितरी रहती है जो क्षारीय वर्ण को ग्रहण कर लिया करती है । जैसे रुधिराणु नील वर्ण धारण कर लेते हैं। इस विकृति को बहुवर्णता ( polychromasia ) या बहुवर्णप्रियता (polychromatophilia) कहा जाता है। साधारणतया न्यष्टिवान् रुधिराणु अपने सामान्य परिवर्तनशील प्राकृतिक व्यापार में आगे चलकर न्यष्टिविरहित रुधिराणुओं को जन्म देते हैं। इस दृष्टि से तीन परिवर्तन उनमें देखे जाते हैं १. न्यष्टि का संकुचित होना ( pyknosis-स्थौल्योत्कर्प)। २. न्यष्टि का विशृङ्खलित होना ( karyorrhexis-न्यष्टिविश्खलन)। ३. न्यष्टि के कणों का कोशा के चिदस में विलीन हो जाना ( chromatolysisवर्णाशन )। कभी कभी जब रक्तनिर्माणकारी अंगों पर अत्यधिक कार्यभार पड़ जाता है तो कुछ ऐसे रुधिराणु भी रक्त में देखे जाते हैं जिनकी न्यष्टि के कण अंशतः चिद्रस में विलीन हो जाते हैं। एक या दो तीन न्यष्टिकण जो क्षारीय अभिरंजन से रँगे जा सकते हैं उस रुधिराणु में दिखाई देते हैं जो लगभग न्यष्टिविहीन हो चुका है। इस क्षारप्रिय पुंज को हौवेल जौली पिण्ड ( Howell-Jolly body ) कहा जाता है । कभी-कभी न्यष्टि के पूर्णतः विलीन हो जाने पर भी उसका आवरण ( nuclear membrane) रुधिराणु के अन्दर रह जाता है । इसे कैबोटवलय (Cabot ring) कहा जाता है। ऋजुरुहों ( normoblasts ) से रुधिराणु बनने की स्वाभाविक प्रक्रिया के मध्य For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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