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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८७२ विकृतिविज्ञान ___ पर जिन रोगों में फुफ्फुसों का श्वास लेने का क्षेत्रफल घट जाता है जिसके कारण पूरी मात्रा में औक्सीजन की प्राप्ति नहीं हो पाती वहाँ यह वास्तविक बहुकोशारक्तता के रूप में मिलती है। जीर्णश्वासनाल या क्लोमनालपाक ( chronic bronchitis) तथा ( वायुकोशा विस्तार ) (emphysema ), तथा जीर्ण फुफ्फुसीय तन्तुल्कर्ष ( chronic fibrosis of the lung ) में यह मिलती है। रक्त के सहज फुफ्फुसीय निरोधोत्कर्ष (congenital pulmonary stenosis of the blood ) में फुफ्फुसों को स्वतन्त्रतापूर्वक रक्त का आवागमन न हो सकने के कारण रक्त को आक्सीजन की मात्रा की प्राप्ति कम होने से भी वास्तविक बहुकोशारक्तता मिल सकती है। इसी प्रकार प्राङ्गारएकजारेय विषता (carbon mono-oxide poisoning) में और समशोणवर्तुलिरक्तता ( methaemoglobinaemia ) में भी रक्त की औक्सीजनग्राहक शक्ति का ह्रास होने से यह अवस्था उत्पन्न हो जा सकती है। जिन अवस्थओं में रुधिराणुओं की संख्या कम हो जाती है उन्हें रक्तक्षय, अरक्तता, अल्परक्तता आदि कई नामों से पुकारा जाता है और जो 'एनीमिया' नाम से प्रसिद्ध हैं। उनका वर्णन विस्तारपूर्वक आगे होगा अतः यहाँ इस समय इस विषय का विशेष उल्लेख नहीं करते। __ आकारसम्बन्धी परिवर्तन-आकार की विषमता भी रुधिराणुओं का एक विकार है इसे असमतोत्कर्ष या विषमकायोत्कर्ष (anisocytosis) भी कहा जाता है । जो रुधिराणु आकार में बड़े होते हैं तथा जिनमें रक्तिमा कम होती है, परमकोशा या मैक्रो साइट्स ( macrocytes ) कहलाते हैं। ये १० से १८ (म्यू) के आकार के होते हैं। इससे और बड़े कोशा बृहदक्तकोशा ( megaloblasts ) कहलाते हैं। अत्यन्त सूचनाकृतिक (१ से ६ म्यू तक) रुधिराणु लघुकायाणु ( microcytes) हलाते हैं । साधारण स्वस्थ रुधिराणु का आकार ७.२ म्यू का माना जाता है। इसकी सीमा ६ से ९ म्यू तक जा सकती है। __ प्राइसजोन्सवक्रता (Price jones curve) के द्वारा विषमकायोत्कर्ष का ज्ञान भले प्रकार हो जाता है। इसके लिए रक्त की एक पतली पट्टी लेकर सुखा कर जैनर के द्रव में २ मिनट रँग कर उतनी ही देर उपसि (इओसीन) में रँगते हैं। इसे एक विशेष पात्र विक्षेप साधित्र ( projection apparatus) में रख कर अण्वीक्ष के नीचे देखते हैं। इस पात्र का रूप ऐसा होता है कि वास्तविक चित्र १००० गुना बड़ा लगता है तथा जिस कागज पर यह पढ़ा जाता है उस पर १ मिली मीटर आता है। इस प्रकार चित्र पट्टी पर १ म्यू तक लम्बाई का ज्ञान हो जाता है। रुधिराणुओं की नाप फिर इसी से आरम्भ की जाती है। इस प्रकार ५०० रक्त कण नाप लिए जाते हैं। एक ओर ग्राफ पर इनकी संख्या और दूसरी ओर उनके व्यास की नाप (म्यू में) के द्वारा जो वक्र रेखा बनती है वह प्राइसजोन्सवक्रता कहलाती है। यह वक्रता ७.२ म्यू पर सर्वोच्च शिखर स्वस्थ पुरुषों में बनाती है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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