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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुधिर वैकारिकी जिस प्रकार से कमलनालों और कमलकन्दों में छिद्र स्वाभाविक रूप में होते हैं उसी प्रकार स्वाभाविक रूप में धमनियों में छिद्र होते हैं जिनमें होकर रस निरन्तर बहता रहता है। उपर्युक्त उद्धरणों से ब्लड नाम से जिस धातु का बोध आधुनिक किया करते हैं वह आयुर्वेदीय रञ्जित रसधातु है जो रक्त या रुधिर नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध है । जीवरक्त के नाम से भी इसी का बोध होता है-पाञ्चभौतिकं स्वपरे जीवरक्तमाहुराचार्याः । इस जीवरक्त की पाञ्चभौतिकता की पुष्टि के लिए निम्नलिखित श्लोक बड़े महत्त्व का है विस्रता द्रवता रागः स्पन्दनं लघुता तथा । भूम्यादीनां गुणा ह्येते दृश्यन्ते चात्र शोणिते ।। आमगन्धि गुण पृथिवी का, द्रवत्व जल का, लाली अग्नि का, स्पन्दन वायु का तथा हलकापन आकाश का गुण होता है और ये पाँचों गुण रक्त में बराबर दिखाई देते हैं। तस्य शरीरमनुसरतोऽनुमानाद्गतिरुपलक्षयितव्या क्षयवृद्धिवैकृतैः। तस्मिन् सर्वशरीरावयवदोषधातुमलाशयानुसारिणिरसे जिज्ञासा-किमयं सौम्यस्तैजस इति । अत्रोच्यते -स खलु द्रवानुसारी स्नेहनजीवनतर्पणधारणादिभिर्विशेषैः सौम्य इत्यवगम्यते । ( सुश्रुत सूत्र अध्याय १४) । उपर्युक्त वाक्य में रस के सम्बन्ध में जितना भी आचार्यों को ज्ञान है वह अनुमान नामक प्रमाण के आधार पर है। रस के क्षय, वृद्धि और विकृतियों के द्वारा सर्वशरीरचारी रस वा रक्त की गति का ज्ञान अनुमान द्वारा ही किया गया है। यह सम्पूर्ण शरीर में बहता है। शरीर के सब अवयव, सब दोष, सम्पूर्ण धातुएँ, सारे मल और आशय सर्वत्र रस व्याप्त है। सौम्य या तैजस इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि रस द्रव है, भ्रमणशील है, स्नेहन, जीवन, तर्पण, धारणादि विशेष गुणों के कारण यह सौम्य ही ज्ञात होता है। भेल ने समाशनपरिधनीय नामक ग्यारहवें अध्याय में रस-रक्त-व्यापत्तिज जो रोग गिनाए हैं उनसे भी हमारी रस-रक्त-कल्पना ( conception ) को एक आधार प्राप्त हो जाता हैअन्नस्य "त ( बल ) तस्तेजो रसो निर्वय॑ते नृणाम् । रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदस्ततोऽस्थि च ।। अस्थ्नो मज्जा ततः शुक्र शुक्राद्गर्भस्य सम्भवः। एवं पूर्वात्परं याति धातुर्धातुं यथाक्रमम् ।। तत्रापथ्यं यथाभुक्तं रससेव्यथवा पुनः । कुर्याद्रोगानदीप्तानी रसव्यापत्तिसम्भवान् । शोणिताद्यात्मता गच्छेत्परिणामवशात् तदा । यस्मिन्व्यापद्यते धातौ तस्मिन् व्याधीन् करोत्यथ ।। विषूचिकां सालसकां पित्तदाहं विलम्बिकाम् । अन्येद्यष्कं सततकं तृतीयकचतुर्थकम् ।। पित्तं लोहितपित्तं च रक्तासि प्रलेपकम् । विपाटिकांश्च तान् व्याधीन् रसव्यापत्तिजान्विदुः ।। कर्छ चर्मदलं पामां चर्मकीलं विचर्चिकाम् । विड्जान् सत्त्वानि कुष्ठानि रक्तव्यापत्तिजान्विदुः ।। आधुनिक विचारकों के मत से रस में निलम्बित कोशाओं से युक्त तरल रुधिर कहलाता है । यह सम्पूर्ण शरीर भार का बीसवां भाग हुआ करता है । आयुर्वेद में जिसे रस के नाम से सम्बोधित किया गया है वह प्लाज्मा ( plasma ) कहलाता है। प्लाज्मा प्राङ्गोदेयों, प्रोभूजिनों, जारक (औक्सीजन), स्नेहों, पैत्तव तथा लवणों का तरल संमिश्रण होता है जिसमें जीवतिक्तियाँ तथा न्यासर्ग ( hormones ) भी सम्मिलित होते हैं । इनके अतिरिक्त चयापचय में ऊतियों में बने अपद्रव्य (waste ७३, ७४ वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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