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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८६४ विकृतिविज्ञान स्त्रियों का रज नामक रक्त इसी रस से तैयार होता है । २. तत्र रस गतौ धातुः, अहरहर्गच्छतीत्यतो रसः -- गति धातु से निर्मित रस शब्द दिन दिन गमन करता है अतः रस कहलाता है । ३. स खलु त्रीणि त्रीणि कलासहस्राणि पञ्चदश च कला एकैकस्मिन्धात्वावतिष्ठते, एवं मासेन रसः शुक्री भवति स्त्रीणां चार्तवम्- वह रस एक एक धातु में ३०१५ कला तक ठहरता है । तथा एक मास में वही पुरुष में शुक्र और स्त्री में बीज बन जाता है । तथा रस से वीर्य बनने में १८०९० कला का समय लगता है । ४. स शब्दाचिर्जलसन्तानवदणुना विशेषेणानुधावत्येवं शरीरं केवलम् -- वह आप्यरस शब्द - तेज-जल के विस्तार की तरह शरीर में केवल सूक्ष्मरूप से विशेषतया गमन करता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५. स एवान्नरसो वृद्धानां परिपक्वशरीरत्वादप्रीणनो भवति -- वृद्धों के परिपक्क शरीर वाला होने के कारण वही अन्नरस अप्रीणन ( अपुष्टिकारक ) होता है । ६. रसः प्रीणयति रक्तपुष्ट च करोति रस शरीर का प्रीणन तथा रक्त की पुष्टि करता है । ७. रसक्षये हृत्पीडा कम्पः शून्यता तृष्णा च- रस का क्षय हो जाने पर हृदय में पीडा होती है, शरीर में कम्पन होता है, शून्यता तथा प्यास बढ़ जाती है । ८. रसोऽतिवृद्धौ हृदयोत्क्लेद प्रसेकं चापादयति- रस की अधिक वृद्धि होने पर हृदय में उत्क्लेद और मुख से पानी निकलने लगता है । ९. तत्र श्लेष्मलाहारसेविनोऽध्यशनशीलस्याव्यायामिनो' मनुक्रामन्नतिस्नेहान्मेदो जनयति । तदतिस्थौल्यमापादयति "एवान्नरसो मधुरतरश्च शरीर श्लेष्मल आहार विहारादि से अन्नरस मधुरतर होकर अधिक स्नेह से मेदोत्पत्ति करके स्थूलता की वृद्धि करता है 1 १०. उपशोषितो रसधातुः शरीरमननुक्रामन्नल्पत्वान्न प्रीणाति सोऽतिकृशः क्षुत्पिपासाशीतोष्णवातवर्षभारादानेष्वसहिष्णुर्वातरोगप्रायोऽल्पप्राणश्च क्रियासु भवति, श्वासकास शोषलीहोदराग्निसादगुल्म रक्तपित्तानामन्यतममसाध्य मरणमुपयाति वातलाहारसेवी व्यक्ति की रसधातु जब उपशोषित हो जाती है तो वह धातुओं का प्रीणन शरीर में नहीं कर पाती है जिसके कारण रोगी अधिक कृश हो जाता है । कार्य के कारण क्षुधातृष्णादि में असहिष्णु हो जाकर वह अल्पप्राण हो जाता है जिससे वासकासादिक से ग्रसित होकर मर तक जाता ११. यथा स्वभावतः खानि मृणालेषु बिसेषु च । धमनीनां तथा खानि रसो यैरुपचीयते - है 1 For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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