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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५८ विकृतिविज्ञान दिखला दी है । माधवनिदान की मधुकोशा टीका भी इसे एक वातज रोग मानती है लिखा है: 'अत्र भोजवचनात् पित्तरक्तान्वितो वायुः कारणम् । यदाह___ रक्तपित्तान्वितो वायुस्त्वक्प्रदेशाश्रितो यदा । जनयेन्मण्डलं कृष्णं श्यावं वा न्यच्छमादिशेत् ॥' रक्त और पित्त से युक्त वायु जब त्वचा के भाग में आश्रित हो जाती है तो वह काला या साँवला न्यच्छ नामक मण्डल उत्पन्न कर देती है। न्यच्छ में जैसा कि अभी बतलाया है दो प्रकार के कोशा होते हैं। एक न्वच्छ कोशा जो रंगहीन और वातनाडी अग्रों (nerve-endings) से युक्त होते हैं। दूसरे रंगीन जो वातनाडियों से विरहित होते हैं। इन्हें कालिरुह कालिकृत् या कालिघट कहते हैं। रंगीन कोशा जितने अधिक होते हैं उतना ही अधिक न्यच्छ पर वर्ण चढ़ता है। कालिरुह कालि का निर्माण करते हैं। त्वचा में विचरने वाले कुछ रंगीन कोशा होते हैं ( wandering pigmented cells ) वे स्वयं वर्णोत्पत्ति नहीं करते अपि तु कालिरहों द्वारा निर्मित वर्ण का वहन मात्र करते हैं इसी से इन्हें वर्णवाहक (chromatophore ) या कालिवाहक ( melanophore ) संज्ञा दी जाती है। ___ अधिचर्म भी न्यच्छ निर्माण का कार्य कर सकता है पर क्रियाशील कोशा अधिच्छदीय न होकर वातबहिस्तरीय ( neuro-ectodermal) होते हैं। सुषुप्त कालिरुह और न्यच्छ कोशा दोनों अधिचर्म में भी रह सकते हैं और न्यच्छोत्पत्ति कर सकते हैं। न्यच्छ की वातिक उत्पत्ति इसे वाततन्त्वबंदोत्कर्प ( neuro fibromatosis) जिसे फान रैकलिंगहाउजनामय भी कहते हैं से भी सम्बन्ध कर देता है। इस रोग में भी रंगीन सिध्म बहुधा देखने में आते हैं। दूसरे न्यच्छ की अधिकता से अनेक वाततन्त्वर्बुद भी उत्पन्न होते देखे जाते हैं। मारात्मककाल्यर्बुद (Malignant Melanoma ) यह अर्बुद काल्यर्बुद अथवा काल्यर्बुदीय ( Melanotic) संकटार्बुद कहलाता है। यह त्वचा के न्यच्छ द्वारा या आँख के रंगित पटल में उत्पन्न होता है आँख में इसके पूर्व की अवस्था न्यच्छ की नहीं होती। आँख में सब मारात्मक काल्यर्बुदों की संख्या का तृतीयांश पाया जाता है। कोई तिल जिसपर घर्षण या प्रक्षोभ निरन्तर होता रहता है। काल्यर्बुद में परिणत हो सकता है। पैरों के तलवों या नखों के नीचे या स्त्री के बाह्य गुप्तांगों पर ये स्वतन्त्रतया देखे जा सकते हैं यद्यपि इन स्थानों पर न्यच्छोत्पत्ति बहुत ही कम होती है। कभी-कभी पर बहुत ही कम ऐसी अवस्थाएँ आती हैं जब मलाशय, अधिवृक्क या मृदुतानिका में प्राथमिक विक्षत बन जाने से त्वचा पर कोई भी काल्यर्बुद नहीं दिखता या केवल उसका द्वितीयकरूप ही देखने में आता है। काल्यर्बुद एक बहुत ही कम होने वाला रोग है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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