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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ८५७ न्यच्छ तिल ( mole ) जैसा होता है। यह बहुधा रंगित होता है। इसका वर्ण धूसर से बभ्रु और अत्यधिक कृष्ण तक हो सकता है। यह बहुधा केशों से आच्छादित और त्वचा से कुछ उठा हुआ होता है । आकार की दृष्टि से यह कई प्रकार का होता है। कभी यह बहुत छोटा और लघु रूप में मिलता है और कभी शरीर त्वचा के बहुत से भाग में फैला हुआ मिलता है । न्यच्छ प्रत्येक व्यक्ति में एक से लेकर बीस पच्चीस तक पाये जा सकते हैं ये बहुधा मुखमण्डल, ग्रीवा और पृष्ठ पर मिलते हैं परन्तु वैसे किसी भी अंग में पाये जा सकते हैं । जब वे त्वचा से कुछ ऊँचे उठे होते हैं और उनका धरातल चर्मकीलवत् ( warty ) होता है तो घर्षणादि से प्रक्षुब्ध होकर मारात्मकरूप धारण कर ले सकते हैं। ऐसी अवस्था में उन्हें उच्छेदित कर देने से बढ़कर अच्छा मार्ग और नहीं मिल सकता। कभी-कभी न्यच्छ नेत्र के कृष्ण मण्डल में भी देखा जा सकता है। न्यच्छ एक सहजावस्था है पर वयस्क होने के उपरान्त कई व्यक्तियों में ये उत्पन्न होते हुए देखे जा सकते हैं । न्यच्छ सदैव एक महत्त्वहीन जीवन व्यतीत करते और अपुष्ट हो जाया करते हैं पर यदि किसी में द्रुतगति से वृद्धि होने लगे तो अवश्य ही उसमें मारात्मक प्रवृत्ति की प्रवृद्धि का विचार कर लेना चाहिए। अण्वीक्षण करने पर एक शान्त प्रसुप्त ( quiescent) न्यच्छ, स्वच्छ, गोलीय, बहुभुजीय कोशाओं का निचर्म ( dermins ) में संचय मात्र होता है। ये अधिचर्म के नीचे ही नीचे रहते और बढ़ते हैं। इन्हें 'न्यच्छ कोशा' ( naevus cells) कहा जाता है। न्यच्छ कोशा बहुत पास पास संवेष्टित होते हैं तथा एक विशिष्ट स्वरूप से युक्त होते हैं। इन न्यच्छ कोशाओं के किनारों पर कालिकणों से पूर्ण तर्कुरूप रंगित कोशा होते हैं जिनमें रंगा की मात्रा बहुत अधिक भिन्नता रखती है। इन कालिकों ( melanin ) को कालिरुह ( melanoblast ) कहते हैं। कालिरुह के कारण ही न्यच्छ में रंग आता है। कभी कभी जब ये नहीं होते तो न्यच्छ वर्णहीन भी देखा जा सकता है। वर्ण श्याव हो या असित उसकी गहराई का मारास्मकता के अनुपात से कोई सम्बन्ध नहीं देखा जाता। कभी कभी न्यच्छ का वर्ण शनैः शनैः उड़ता भी चला जाता है और वह पूर्णतः वर्णविहीन रूप में भी देखा जा सकता है। न्यच्छ कोशाओं की उत्पत्ति के सम्बन्ध में आधुनिक शास्त्रज्ञों के मतभेदों को मेसन ने दूर कर दिया है। उसका मत है कि न्यच्छ वातिक रोग है। पहले इसे अधिचर्म मध्यरुहीय या अन्तश्छदीय माना जाता था । मेसन लिखता है कि संज्ञावह नाड़ी तन्तुओं के अग्र पर स्थित संज्ञाज्ञापक त्वगाश्रित वातनाडीय भाग विशेष में यह बनता है विशेष करके निचर्म के मिश्नरीय कणकोशा ( cells of meissner's corpuscles ) इसे बनाते हैं। उसने अपने त्रिवर्णीय ( trichrome ) अभिरंजना द्वारा अर्बुद कोशाओं में विमज्जि और अविमग्जि वातनाडी सूत्रों की उपस्थिति प्रत्यक्ष For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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