SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 933
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ८४७ सम्मूहन से बाह्य पदार्थ महाकोशा ( foreign body giant cells ) भी बन जा सकते हैं। त्वचा के अर्बुदों में रक्त के रंगा की अधिकता होने से वे काल्यर्बुद करके भी भ्रम से लिए जा सकते हैं। पर चूंकि काल्यर्बुद के कालि के कण छोटे गोल और अधिक एकसे होते हैं और इसके कण उसकी अपेक्षा अधिक बड़े और विषमाकृतिक होते हैं इससे दोनों को पहचानने में काफी सरलता हो जाती है। स्रोतसीय वाहिन्यर्बुद-इस प्रकार के वाहिन्यर्बुद बहुत ही कम पाये जाते हैं। ये रक्त के बड़े बड़े अवकाशों ( blood spaces ) के द्वारा बनते हैं जिनके भीतर अन्तश्छद का स्तरण हुआ रहता है । यकृत् इस अर्बुद की मुख्य क्रीडाभूमि है। यकृत् में वे अनेक हो सकते हैं पर वे बड़े बहुत ही कम होते हैं । ब्वायड एक ऐसे रोगी का उल्लेख करता है जिसके वाम यकृत्खण्ड में एक बहुत बड़ा स्रोतसीय वाहिन्यबुंद था जिसका पहले से कोई ज्ञान नहीं होने से शस्त्रकर्म करते समय वह विदीर्ण हो गया और रोगी मेज पर कुछ ही मिनटों में मर गया। यकृत् के अतिरिक्त ओष्ठ, अक्षिगुहा, प्लीहा, उपस्वगीय ऊति और पेशी में भी यह हो सकता है। इन स्रोतसों में धमनियाँ सीधी सीधी भी कभी कभी खुलती हैं और उनमें पर्याप्त रक्त भर देती हैं। ये अर्बुद प्रसर या परिलेखित दोनों प्रकार के मिल सकते हैं। जब यह सहज रूप में होते हैं जो लिण्डौ के रोग ( Lindau's disease ) में देखे जाते हैं तो वे सर्वकिण्वी, निमस्तिष्क, दृष्टिपटल ( retina ), सुषुम्ना आदि अंगों में भी स्रोतसीय वाहिन्यर्बुद बनते हैं। ___ अन्तश्छदीय कोशा वाहिन्यर्बुद का प्रमुख कोशा हुआ करता है तथा उसकी रचना का एकक कोई रक्तवाहिनी या लसीकावाहिनी होती है। साधारणतम वाहिन्यबुंद के अन्दर वाहिनी खुली ( patent) होती है। इसमें लसीका वा रक्त पाया जाता है तथा अन्तश्छद केवल एककोशीय स्तर का बना होता है। जब अन्तश्छद में परमचय अधिक होता है तब कई कोशा मिलकर सुषिरक का मुख घेर लेते हैं जिसके कारण सुपिरक खुला हुआ नहीं दिखलाई दिया करता। वाहिनियों के अन्दर कहीं कहीं कोशाओं के ऐसे समूह देखे जा सकते हैं। इनको कोशीय वाहिन्यबुदिका ( cellular angiomata) कहा जाता है। इस दशा में शोणवाहिनीय अन्तश्छदार्बुद से लेकर अतिमारात्मक वाहिन्यरुहार्बुद ( angioblastoma ) तक सभी श्रेणी के अर्बुद मिल सकते हैं। केशिकीय या स्रोतसीय दोनों प्रकार के वाहिन्यर्बुद भ्रौण दीणों ( embryonic clefts ) के समीप पाये जाते हैं। जब ये दीर्ण नहीं होते तब ये वातनाडियों के विभाजन के मार्ग के साथ साथ मिलते हैं । त्वगीय वाहिन्यर्बुद ( चर्मकील या न्यच्छ) पञ्चमी शीर्षण्या नाडी की एक शाखा के विभजन के साथ साथ पाया जाता है। परन्तु ग्रीन का कथन है कि अनेकों स्थलों पर वाहिन्यर्बुद उपर्युक्त नियमों को पालन करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता और भ्रौण दीरें या नाडी विभागों के अतिरिक्त भी अधिकाधिक संख्या में देखा जा सकता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy